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छठा अध्ययन द्वितीय उद्देशक - संयमी के लक्षण
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प्रस्तुत सूत्र में चारित्र से भ्रष्ट होने के कारणों एवं उसके दुष्परिणाम का वर्णन
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विवेचन किया गया है।
मनुष्य जन्म पाना बड़ा दुर्लभ है। मनुष्य जन्म प्राप्त कर सर्व विरति रूप चारित्र अंगीकार करना तो और भी दुर्लभ है। ऐसे चारित्र को अंगीकार करके जब दुःसह परीषहों का आक्रमण होता है तब उन्हें सहन करना बड़ा कठिन हो जाता है। कोई धीर पुरुष ही उन्हें सहन करते हैं। अधीर पुरुष तो उनसे घबरा कर संयम का त्याग करके गृहस्थ बन जाते हैं। वे विषय भोगों में आसक्त होकर विषय भोगों को भोगने के लिए प्रवृत्त होते हैं किन्तु अनेक विघ्न बाधाओं और अंतराय के कारण वे अपनी इच्छानुसार भोग भोगे बिना ही शरीर को त्याग देते हैं। इस प्रकार वे संयम से भी भ्रष्ट हो जाते हैं और भोगों को भी नहीं भोग सकते हैं।
(३५१)
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अहेगे धम्ममायाय आयाणप्पभिइसु पणिहिए चरे अप्पलीयमाणे दढे । कठिन शब्दार्थ - आयाणप्पभिइसु - धर्मोपकरणादि से युक्त होकर, पणिहिए चरे धर्माचरण करते हैं, अप्पलीयमाणे - अलिप्त अनासक्त होते हुए, दढे - दृढ़ । भावार्थ - कई पुरुष श्रुत और चारित्र रूप धर्म को स्वीकार करके, धर्मोपकरणों से युक्त होकर धर्माचरण करते हैं । वे माता-पिता आदि में तथा लोक- कामभोगों में अलिप्त / अनासक्त होकर धर्म में दृढ़ रहते हैं ।
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(३५२)
सव्वं गिद्धिं परिणाय एस पणए महामुनी ।
कठिन शब्दार्थ - गिद्धिं - गृद्धि ( आसक्ति) को, पणए प्रणत संयम में अथवा कर्मक्षय में प्रवृत्त ।
भावार्थ - समस्त गृद्धि (आसक्ति) को ज्ञ परिज्ञा से जान कर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर प्रणत - संयम अथवा कर्म क्षय में प्रवृत्त महामुनि होता है।
संयमी के लक्षण
(३५३)
अइअच्च सव्वओ संगं "ण महं अत्थित्ति इइ एगोहमंसि" जयमाणे एत्थ
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