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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 888888RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR8. कुलेहिं अभिसेएण, अभिसंभूया, अभिसंजाया, अभिणिव्वट्टा, अभिसंवुड्डा, अभिसंबुद्धा, अभिणिक्खंता अणुपुव्वेणं महामुणी।
कठिन शब्दार्थ - आयाण - समझो, सुस्सूस - सुनने की इच्छा करो, धूयवायं - धूतवाद को, अभिसेएण - शुक्र शोणित के अभिषेक से, अभिसंभूया - अभिसंभूत - गर्भ में कलल रूप हुआ, अभिसंजाया - अभिसंजात - मांस और पेशी रूप बना, अभिणिव्वद्या - अभिनिवृत-अंग उपांग से परिपूर्ण हुआ, अभिसंवुड्डा - अभिसंवृद्ध - संवर्द्धित हुआ, अभिसंबुद्धा - अभिसम्बुद्ध - संबोधि को प्राप्त हुआ, अभिणिक्खंता - अभिनिष्क्रमण हुआ, अणुपुव्वेणं - अनुक्रम से।
भावार्थ - हे शिष्य! तुम समझो और सुनने की इच्छा करो। मैं धूतवाद - कर्म धूनने के वाद का निरूपण करूँगा। इस संसार में अपने अपने कर्मों के अनुसार उन उन कुलों में शुक्र
और शोणित के संयोग से माता के गर्भ में कलल रूप हुए, फिर मांस और पेशी रूप बने, तदनन्तर अंगोपांग - स्नायु, नस, रोम आदि विकसित हुए, फिर जन्म लेकर संवर्द्धित हुए, तदनन्तर संबोधि को प्राप्त हुए फिर धर्म श्रवण कर दीक्षा अंगीकार की, इस प्रकार अनुक्रम से महामुनि हुए हैं।
विवेचन - कर्मों का सम्पूर्ण क्षय करके ही जीव परम सुखी बन सकता है। आठ कर्मों को धुनने - झाड़ने का ‘धूत' कहते हैं। धूत का वाद-सिद्धान्त या दर्शन ‘धूतवाद' कहलाता है। प्रस्तुत सूत्र में धूतवाद का वर्णन करते हुए अभिसम्भूत से अभिनिष्क्रांत तक की धूत बनने की प्रक्रिया को दर्शाया है। इस प्रकार इस सूत्र में साधना मार्ग पर आगे बढ़ने वाले मुनि के जीवन विकास का चित्रण किया गया है।
(३४८) तं परक्कमंतं परिदेवमाणा मा णे चयाहि इइ ते वयंति, "छंदोवणीया अज्झोववण्णा," अक्कंदकारी जणगा रुयंति। अतारिसे मुणी ण य ओहं तरए, जणगा जेण विप्पजढा।
कठिन शब्दार्थ - परक्कमंतं - पराक्रम करते हुए, परिदेवमाणा - करुण विलाप करते हुए, णे - हमें, मा - मत, चयाहि - छोड़ों, छंदोवणीया - छंदोपनीत - इच्छा के अनुसार चलने
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