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मग त्राप्रपा
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छठा अध्ययन - प्रथम उद्देशक - धूत बनने की प्रक्रिया ®®®®®8888888@@@@RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR
कठिन शब्दार्थ - अट्टे - आर्त, परियावए - परिताप देता है।
भावार्थ - आर्त और बहुत दुःखों से युक्त वह अज्ञानी प्राणी, प्राणियों को कष्ट देता है। इन अनेक रोगों को उत्पन्न हुआ जान कर उन रोगों की वेदना से आतुर मनुष्य चिकित्सा के लिए दूसरे प्राणियों को परिताप देता है।
सावध - चिकित्सा त्याग
(३४६) णालं पास, अलं तवेएहिं। एयं पास मुणी! महन्भयं, णाइवाएज कंचणं। कठिन शब्दार्थ - ण अलं - समर्थ नहीं, ण अइवाएज - अतिपात (वध) मत कर।
भावार्थ - ये चिकित्सा विधियाँ कर्मोदय जनित रोगों का शमन करने में समर्थ नहीं है, यह देखो। अतः जीवों को परिताप देने वाली सावध चिकित्सा विधियों से तुम दूर रहो। हे मुने! तू देख! इस सावध चिकित्सा में होने वाली जीव हिंसा महान् भय रूप है। अतः किसी भी प्राणी का अतिपात (वध) मत कर।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में हिंसा मूलक चिकित्सा का निषेध किया गया है।
स्वकृत जब अशुभ कर्म उदय में आते हैं तब प्राणी उनके विपाक से अत्यंत दुःखी, पीड़ित व त्रस्त हो उठता है। जब ये कर्म विविध रोगों के रूप में उदय में आते हैं तब प्राणी रोगोपशमन के लिए हिंसक औषधोपचार करता है। इसके लिए वह अनेक प्राणियों का वध करता है - करवाता है। उनके रक्त, मांस आदि का अपनी शारीरिक चिकित्सा के लिए उपयोग करता है परन्तु प्रायः देखा जाता है कि उन प्राणियों की हिंसा करके चिकित्सा कराने पर भी वह रोग मुक्त नहीं हो पाता क्योंकि रोग का मूल कारण तो कर्म है उनका क्षय किये बिना रोग मिटेगा कहां से? किन्तु मोह वश अज्ञानी प्राणी यह नहीं समझता है और प्राणियों को परिताप देखकर भयंकर कर्म बंध कर लेता है। इसीलिए मुनि को हिंसा मूलक चिकित्सा का निषेध किया गया है।
धूत बनने की प्रक्रिया
(३४७) आयाण भो! सुस्सूस भो! धूयवायं पवेयइस्सामि इह खलु अत्तत्ताए तेहिं तेहिं
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