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________________ २०६ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRB कठिन शब्दार्थ - सिया - सित - बद्ध (गृहस्थ), अणुगच्छंति - अनुगमन करते हैं - आचार्य के उपदेश को मानते हैं, असिया - असित - गृह बंधन से रहित (अनगार), णिविजेनिर्वेद - खेद, जिणेहिं - जिनेश्वरों के द्वारा, सच्चं - सत्य, णीसंकं - शंका रहित। ___ भावार्थ - कोई कोई (कितनेक) सित - गृहवास में रहे हुए पुरुष आचार्य का अनुगमन करते हैं - आचार्य के उपदेश को मानते हैं और कोई कोई असित - गृह बंधन से रहित अनगार पुरुष आचार्य का अनुगमन करते हैं। अनुगमन करने वालों के बीच में रहने वाला और अनुगमन नहीं करने वाला - सम्यक्त्व (तत्त्व) को नहीं समझने वाला कैसे निर्वेद (खेद) को प्राप्त नहीं होगा? जो जिनेश्वर भगवंतों का कहा गया है वही सत्य और निःशंक - शंका रहित है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में विचिकित्सा को दूर करने का उपाय बताया है कि जो तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है वही सत्य है, इसमें शंका के लिए कोई अवकाश नहीं है क्योंकि - रागद्वेष पर विजय पाये हुए तीर्थंकर भगवान् वीतराग सर्वज्ञ होते हैं, वे मिथ्यावचन नहीं कहते हैं। उनका वचन सत्य अर्थ को बतलाने वाला और संशय रहित होता है। परिणामों की विचित्रता . (३१५) , सविस्स णं समणुण्णस्स संपव्वयमाणस्स समियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ समियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया होइ असमियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ असमियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया होइ। कठिन शब्दार्थ - सविस्स - श्रद्धालु, समणुण्णस्स - सम्यक् प्रकार से अनुज्ञा - जिनोपदेश के अनुसार, दीक्षा के योग्य, संपव्वयमाणस्स - संप्रव्रजित - सम्यक् प्रकार से प्रव्रज्या को स्वीकार करते हुए को, समियं - सम्यक् - यथार्थ, असमिया - असम्यक्, मण्णमाणस्स - मानते हुए को।। भावार्थ - श्रद्धालु, प्रव्रज्या ग्रहण करने के योग्य, प्रव्रज्या को सम्यक् स्वीकार करने वाला मुनि जिनेन्द्र भगवान् के वचनों को सम्यक् मानता है और उत्तरकाल (बाद) में भी सम्यक् मानता है। कोई पुरुष दीक्षा लेते समय जिनोक्त तत्त्व को सम्यक् मानता है किंतु संयम स्वीकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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