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________________ १४६ - आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 88888888888888888888888888888888888888888888888 (३०३) मुणी मोणं समायाए, धुणे कम्मसरीरगं, पंतं लूहं सेवंति, वीरा सम्मत्तदंसिणो॥ एस ओहंतरे मुणी, तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए त्ति बेमि ॥३०३॥ ॥ तइओद्देसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - पंतं - प्रान्त (बचा खुचा थोड़ा सा) लूहं - रूक्ष (रूखा - नीरस), ओहंतरे - ओघंतर - संसार रूप समुद्र को तिरने वाला, तिण्णे - तीर्ण - तिरा हुआ, मुत्ते - मुक्त, विरए - विरत, वियाहिए - कहा गया है। भावार्थ - मुनि संयम को स्वीकार करके कर्म शरीर को - कर्मों को धुन डाले - विनाश करे। सम्यक्त्वदर्शी (समत्वदर्शी) वीर मुनि अन्त प्रान्त और रूक्ष आहार का सेवन करते हैं। इस संसार रूप समुद्र को तिरने वाला मुनि तीर्ण (तिरा हुआ), मुक्त और विरत कहा गया है - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - संयम का पालन करना सरल नहीं है। हर कोई प्राणी संयम का पालन नहीं कर सकता है। तप संयम में शिथिल, स्त्री पुत्रादि में ममत्व रखने वाला, शब्दादि विषयों में गृद्ध, मायावी और प्रमादी पुरुषों से समस्त पापों के त्याग रूप संयम का पालन नहीं हो सकता है किन्तु संसार के स्वरूप को भलीभांति जान कर उसका त्याग करने वाले और कर्म विदारण में निपुण मुनि ही संयम का पालन कर सकते हैं। वे अन्त प्रान्त और रूक्ष आहार का सेवन कर संयम यात्रा का निर्वाह करते हैं और तप द्वारा कर्मों का क्षय करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाते हैं। ॥ इति पांचवें अध्ययन का तृतीय उद्देशक समाप्त॥ पंचमं अज्झयणं चउत्थोडेसो पांचवें अध्ययन का चौथा उद्देशक तीसरे उद्देशक में बतलाया गया है कि हिंसा, विषय भोग और परिग्रह में महान् दोष है अतः इन से जो विरत है वही मुनि है। अब चौथे उद्देशक में अकेले विचरने वाले के दोषों को बता कर उसके मुनि न होने का कारण बताया जाता है। इस उद्देशक का प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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