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________________ पांचवाँ अध्ययन - प्रथम उद्देशक - कामभोगों की निःसारता १७५ 邯郸邯耶郎帶傘傘傘****海參參參參參參部邵邵參參參參參參參密密密密密密 कठिन शब्दार्थ - विप्परामुसंति - प्राणियों की घात करते हैं /जन्म धारण करते हैं, अट्ठाए - अर्थ-प्रयोजन से, अणट्ठाए - अनर्थ - निष्प्रयोजन से, गुरू - कठिन, मारस्स अंतो-मारंतो - मृत्यु के अंदर, दूरे - दूर। भावार्थ - इस लोक में जो कोई मनुष्य अर्थ से (सप्रयोजन) या अनर्थ (निष्प्रयोजन) से प्राणियों की हिंसा करते हैं वे उन्हीं प्राणियों में जन्म धारण करते हैं अर्थात् उन्हीं योनियों में उत्पन्न होते हैं। उन जीवों के लिए काम भोगों का त्याग करना बहुत कठिन है इसलिए वह मृत्यु के अंदर - मृत्यु की पकड़ में रहता है। जबकि वह मृत्यु की पकड़ में है इसलिए वह मोक्ष के उपाय से दूर है। वह विषय सुखों के अन्तर्वर्ती भी नहीं है और उनसे दूर भी नहीं है। विवेचन - प्रस्तुत अध्ययन के नाम पर विचार करते हुए टीकाकार ने लिखा हैलोगस्स उ को सारो? तस्स य सारस्स को हवइ सारो? तस्स य सारो सारं जइ जाणसि पुछिओ साह! . अर्थ - इस चौदह राजूलोक का सार क्या है? तथा उस लोक के सार का सार तत्त्व एवं उस सार का भी सार तत्त्व क्या है? इसका समाधान करते हुए टीकाकार कहते हैं - लोगस्स सारो धम्मो, धम्मपि य नाणसारियं विति। नाणं संजमसारं, संजमसारं च निव्वाणं॥ अर्थ - लोक का सार धर्म हैं, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है और संयम का सार निर्वाण - मोक्ष है। निष्कर्ष यह है कि लोक का सार संयम है और संयम साधना से मुक्ति प्राप्त होती है। संयम के बिना कोई भी व्यक्ति मोक्ष नहीं पा सकता है। अतः प्रस्तुत अध्ययन में संयम (चारित्र) का वर्णन किया गया है। ___ प्रथम उद्देशक के इस प्रथम सूत्र में हिंसा एवं हिंसा जन्य फल का उल्लेख किया गया है। इस संसार में अज्ञानी जीव अपने प्रयोजन के लिए अथवा निष्प्रयोजन ही नाना प्रकार से हिंसा करते हैं और इस पाप कर्म का फल भोगने के लिए छह जीवनिकाय की नाना योनियों में उत्पन्न होते रहते हैं। . उपरोक्त सूत्र में 'विप्परामुसंति' (विपरामृशंति) शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है। पहली बार इसका अर्थ 'जीव घात करते हैं' किया है जबकि दूसरी बार प्रसंग वश अर्थ किया है - 'विभिन्न योनियों में उत्पन्न होते हैं।' अज्ञानी जीवों के लिए कामभोगों का त्याग करना सहज नहीं होता है अतः उनके लिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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