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आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध )
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से युक्त, ज्ञानादि गुणों से सहित, पाप कर्म से निवृत्त, सदा यतना पूर्वक आहार विहारादि क्रिया करने वाले मुनीश्वर अतीतकाल में अनंत हो चुके हैं और चारित्र का पालन करने वाले मुनियों को कर्म जनित उपाधि प्राप्त नहीं होती है और वे अपने समस्त कर्मों का क्षय कर मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
॥ इति चतुर्थ अध्ययन का चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ ॥ सम्यक्त्व नामक चौथा अध्ययन समाप्त ॥
लोकसार णामं पंचमं अज्झयणं लोकसार नामक पांचवां अध्ययन पंचम अज्झयणं पठमोहेसो
पांचवें अध्ययन का प्रथम उद्देशक
चौथे अध्ययन में सम्यक्त्व और उसके अंतर्गत सम्यग्ज्ञान का कथन किया गया है। सम्यग् दर्शन और सम्यग्ज्ञान का फल सम्यक् चारित्र है और चारित्र ही मोक्ष का प्रधान कारण है और लोक में सारभूत है । अतएव इस पांचवें अध्ययन का नाम 'लोकसार' है । इसमें सम्यक् चारित्र का वर्णन किया गया है। इसके प्रथम उद्देशक का प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं।
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कामभोगों की निःसारता
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(२६४)
आवंती केयावंती लोयंसि विप्परामुसंति अट्ठाए अणट्ठाए वा । एएसु चेव विप्रामुसंति, गुरू से कामा, तओ से मारस्स अंतो, जओ से मारस्स अंतो तओ से दूरे, णेव से अंतो णेव से दूरे ।
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