________________
चौथा अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - मृत्यु निश्चित है
१५६. 888888888888888888888888888888888888888
मृत्यु निश्चित है
(२३५) ____णाणागमो मच्चुमुहस्स अत्थि। इच्छापणीया वंकाणिकेया कालग्गहीआ णिचयणिविट्ठा पुढो पुढो जाई पकप्पयंति।
कठिन शब्दार्थ - ण अणागमो - न आना, मच्चुमुहस्स - मृत्यु के मुंह में, इच्छापणीया - इच्छा अनुसार विषय में प्रवृत्ति, वंकाणिकेया - असंयम (वक्रता) के घर, कालग्गहीआ - काल से गृहीत, णिचयणिविट्ठा - कर्मों के निचय (संग्रह) में निविष्ट चित्तदत्त चित्त।
. भावार्थ - संसारी जीवों का मृत्यु के मुख में जाना नहीं होगा, ऐसा संभव नहीं है अर्थात् मृत्यु नहीं आयेगी - ऐसा कभी नहीं हो सकता। फिर भी इच्छा अनुसार विषयों में प्रवृत्ति करने वाले पुरुष कुटिलता (असंयम) के घर बने रहते हैं। वे मृत्यु की पकड़ में आ जाने पर भी कर्म संचय में - पाप कार्य करने में दत्तचित्त बने रहते हैं। ऐसे लोग एकेन्द्रिय आदि विभिन्न जातियों को प्राप्त करते रहते हैं यानी बार-बार जन्म मरण करते रहते हैं।
विवेचन - शास्त्रकार फरमाते हैं कि - मृत्यु के आने का कोई समय निश्चित नहीं है अतः धर्म कार्य करने में क्षण भर का भी प्रमाद नहीं करना चाहिये।
(२३६) इहमेगेसिं तत्थ तत्थ संथवो भवइ। अहोववाइए फासे पडिसंवेदयंति।
कठिन शब्दार्थ - संथवो - संस्तव - परिचय, अहोववाइए - अधो - नीचे - नरकादि में उत्पन्न होने वाले, फासे - दुःख रूप स्पर्श का, पडिसंवेदयंति - प्रतिसंवेदनअनुभव करते हैं।
भावार्थ - इस संसार में किन्हीं जीवों को यातनाओं के उन नरकादि स्थानों में संस्तवपरिचय होता है। वे नरकादि दुःखों के स्पर्श का अनुभव करते हैं।
(२३७) चिट्ठ कूरेहिं कम्मेहिं, चिट्ठ परिचिट्ठइ, अचिट्ठ कूरेहिं कम्मेहिं णो चिटुं परिचिट्ठइ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org