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________________ द्वितीय उद्देशक - अनास्रव - अपरिस्रव आस्रव - कर्म बंध के स्थान, परिसव्वा परिस्रव कर्म बंध के स्थान हैं वे ही परिस्रव कर्म निर्जरा के स्थान हैं कर्मबंध के स्थान हैं। विवेचन आस्रव जिन स्रोतों से आठ प्रकार के कर्म आते हैं उन्हें आस्रव कहते हैं। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह, ये पांच आस्रवद्वार माने जाते हैं। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग - ये पांच भेद भी आस्रव के कहे गये हैं । प्रकारान्तर से आस्रव के ४२ भेद इस प्रकार माने जाते हैं ५ इन्द्रिय, ४ कषाय, ५ अव्रत, २५ क्रिया और ३ योग । जिन अनुष्ठान विशेषों से कर्म चारों ओर से गल या बह जाता है उसे परिस्रव कहते हैं। इसी का दूसरा नाम निर्जरा भी है। - परिस्रव विषयलोलुप अज्ञानी जीव के लिए स्त्री, वस्त्र, अलंकार आदि वैषयिक सुख के कारणभूत पदार्थ कर्मबंध के हेतु होने से आस्रव हैं किन्तु तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के लिए वे ही पदार्थ वैराग्य उत्पन्न करने के कारण परिस्रव कर्म निर्जरा के हेतु हैं। इस प्रकार संसार के जितने पदार्थ हैं वे सभी अनेकांत हैं यह दिखाते हुए इसी बात को उलट कर आगमकार कहते हैं कि जो परिस्रव हैं वे ही आस्रव हो सकते हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि तत्त्वदर्शी पुरुष के लिए जो कर्म निर्जरा के स्थान हैं वे ही विपरीत बुद्धि मिथ्यादृष्टियों के लिए कर्म बंध के कारण हो जाते हैं । अनासव - अपरिस्रव (२३२) जे अणासवा ते अपरिसव्वा, जे अपरिसव्वा ते अणासवा । भावार्थ - जो अनास्रव ( व्रत विशेष ) हैं वे अपरिस्रव - कर्मबंध के कारण हो जाते हैं जो अपरिस्रव - पाप के कारण हैं वे अनास्रव कर्म बंध के कारण नहीं होते हैं। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सूत्र २३१ का निषेध दृष्टि से वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि - जो अनास्रव हैं वे अपरिस्रव हैं अर्थात् अनास्रव यानी व्रत आदि यद्यपि कर्म निर्जरा के कारण • माने जाते हैं । किन्तु कर्म के उदय से जिनका अध्यवसाय अशुभ है ऐसे लोगों के लिए अपरिस्रव यानी पाप बंध के कारण माने जाते हैं वे कार्य सम्यग्दृष्टि पुरुषों के लिए निर्जरा के कारण हो कठिन शब्दार्थ निर्जरा के स्थान | Jain Education International चौथा अध्ययन भावार्थ - जो आस्रव जो परिस्रव हैं वे ही आस्रव - - - आसवा - - - - - For Personal & Private Use Only १५७ www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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