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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 參參參參參參參部部够聯部參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參 सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेत्तव्वा ण परितावेयव्या, ण उद्दवेयव्वा।
कठिन शब्दार्थ - पडुप्पण्णा - प्रत्युत्पनाः - वर्तमान में हैं, आगमिस्सा - अनागताःभविष्य में होंगे, आइक्खंति - आख्यान - कथन करते हैं, भासंति - भाषण करते हैं, पण्णवेंति - प्रज्ञापन करते हैं, परूवेंति - प्ररूपण करते हैं, ण हंतव्वा - हनन नहीं करना चाहिये, ण अज्जावेयव्वा - बलात् उन्हें शासित नहीं करना चाहिये, आज्ञा न देना चाहिये, ण परिघेत्तव्वा- दास नहीं बनाना चाहिये, ण परितावेयव्वा - परिताप न देना चाहिये, ण उद्दवेयव्वा - न उनके ऊपर उपद्रव करना चाहिये अर्थात् प्राणों से विमुक्त नहीं करना चाहिये।
__ भावार्थ - मैं कहता हूं - जो अर्हन्त भगवान् अतीत - भूतकाल में हुए हैं जो वर्तमान में हैं और जो भविष्यकाल में होंगे. वे सब इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार भाषण करते हैं, इस प्रकार प्रज्ञापन करते हैं, इस प्रकार प्ररूपण करते हैं - सर्व प्राणियों (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और . चउरिन्द्रियों) सर्व भूतों (वनस्पतिकाय के जीव) सर्व जीवों (पंचेन्द्रिय जीव) और सर्व सत्त्वों (पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय के जीव) का हनन नहीं करना चाहिये, बलात् उन्हें शासित नहीं करना चाहिये, उन्हें दास नहीं बनाना चाहिये, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिये और उन्हें प्राणों से रहित भी नहीं करना चाहिये।
। (२२२) एस धम्मे सुद्धे, णिइए-सासए-समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए, तंजहा-उट्ठिएसु वा, अणुट्ठिएसु वा, उवट्ठिएसु वा अणुवट्ठिएसु वा, उवरयदंडेसु वा, अणुवरयदंडेसु वा, सोवहिएसु वा, अणुवहिएसु वा, संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा।
कठिन शब्दार्थ - सुद्धे - शुद्ध, णिइए - नित्य, सासए - शाश्वत, समिच्च - सम्यक् प्रकार से जान कर, खेयण्णेहिं - खेदज्ञ तीर्थंकरों के द्वारा, उठ्ठिएसु - उत्थित - उद्यत, अणुट्टिएसु - अनुत्थित - अनुद्यत, उवट्टिएसु - उपस्थित, अणुवट्ठिएसु - अनुपस्थित, उवरयदंडेसु- दण्ड देने से उपरत (निवृत्त), अणुवरयदंडेसु - अनुपरत - अनिवृत्त, सोवहिएसुसोपधिक - उपधि से युक्त, अणुवहिएसु - उपधि से रहित, संजोगरएसु - संयोगों में रत, असंजोगरएसु - संयोगों में अरत।
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