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________________ तीसरा अध्ययन - चतुर्थ उद्देशक - प्रमत्त-अप्रमत्त । १४५ 888888888888888888888888888888888888888 (२०६) जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ। भावार्थ - जो एक को जानता है वह सब को जानता है और जो सब को जानता है वह एक को जानता है। . विवेचन - भूतकाल और भविष्यत्काल की अपेक्षा एक पदार्थ की अनन्त पर्यायें होती हैं। उन्हें समस्त रूप से सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् ही जानते हैं। अतः यह बात सिद्ध होती है कि जो अनन्त पर्यायों सहित एक द्रव्य (पदार्थ) को जानता है वह समस्त पदार्थों को जानता है और जो समस्त पदार्थों को जानता है वही अनंत पर्यायों सहित एक पदार्थ को सम्पूर्ण रूप से जानता है। . प्रमत्त-अप्रमत्त .. (२१०) सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स णत्थि भयं। कठिन शब्दार्थ - पमत्तस्स - प्रमत्त - प्रमादी व्यक्ति को, भयं - भय, सव्वओ - सब तरफ से, अप्पमत्तस्स - अप्रमत्त को। ___भावार्थ - प्रमत्त (प्रमादी व्यक्ति) को सब ओर से भय रहता है अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। ... . विवेचन - जो पुरुष प्रमाद करता है यानी आत्मोद्धार के मार्ग को छोड़ कर अवनति के मार्ग में जाता हुआ मद्यपान आदि निंदित कर्म करता है उसको इहलोक और परलोक दोनों में ही भय होता है। जो पुरुष अपने कल्याण में सदा सावधान (अप्रमत्त) रहता है उसको संसार से अथवा कर्मों से भय नहीं होता है क्योंकि समस्त अनर्थों के मूलभूत कषाय का वह विनाश कर चुका है। (२११) जे एगं णामे से बहुं णामे, जे बहुं णामे से एगं णामे। कठिन शब्दार्थ - णामे - झुकाता है, क्षय करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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