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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध)
तइयं अज्झयणं चउत्थो उद्देसओ
तृतीय अध्ययन का चतुर्थ उद्देशक तृतीय अध्ययन के तृतीय उद्देशक में साधक को परीषह उपसर्गों में समभाव, धैर्यता एवं सहिष्णुता बनाए रखने का उपदेश दिया है। इस चतुर्थ उद्देशक में साधक को कषाय-जय की प्रेरणा दी गई है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
कषाय-त्याग
. (२०८) से वंता कोहं च, माणं च, मायं च, लोभं च, एयं पासगस्स दंसणं, . उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स आयाणं सगडब्भि।।
कठिन शब्दार्थ - वंता - वमन कर देता है, पासगस्स - सर्वज्ञ-सर्वदर्शी का, देसणं - दर्शन (उपदेश), उवरयसत्थस्स - शस्त्र से उपरत (निवृत्त), पलियंतकरस्स - कर्म एवं संसार का अंत करने वाले, आयाणं - आदान - कषायों, आस्रवों का, सगडब्भि - स्वकृत कर्मों का भेत्ता।
भावार्थ - ज्ञानादि से युक्त संयमनिष्ठ मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का शीघ्र ही त्याग कर देता है। यह दर्शन (उपदेश) द्रव्य और भाव शस्त्र से निवृत्त और समस्त कर्मों का अंत करने वाले सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकरों का है। जो कर्मों के आदान - हिंसा आदि आस्रवों का त्याग करता है वह स्वकृत कर्मों का नाश करने वाला है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चारों कषायों के वमन (त्याग) का निर्देश किया गया है। सूत्रकार ने कषायों के त्याग के लिए वंता शब्द का प्रयोग किया है। जैसे वमन किये हुए पदार्थ को ग्रहण करना बुद्धिमत्ता नहीं है उसी प्रकार कषायों का संपूर्ण त्याग कर दे।
कषाय त्याग को सर्वज्ञ सर्वदर्शी का दर्शन इसलिये बताया गया है कि कषाय का सर्वथा त्याग किये बिना केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति नहीं होती और केवलज्ञान, केवलदर्शन के बिना मोक्ष नहीं होता। अतः कषायों का त्यागी ही स्वकृत कर्मों का भेदन - नाश करने वाला होता है।
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