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________________ तीसरा अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - बंध और मोक्ष १२६ 串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串部部部部部お母おおお部お母部郡串本部部 _ 'आरंभजीवी उभयाणुपस्सी' का आशय है जो आरंभजीवी (महारंभी और महापरिग्रही) होता है वह उभयलोक (इहलोक परलोक) को या उभय (शरीर और मन) को ही देखता है इससे ऊपर उठ कर वह नहीं देखता अतः शारीरिक एवं मानसिक दुःखों का भागी होता है। 'संसिचमाणा पुणरेंति गभं' पद में बताया है - हिंसा, झूठ, चोरी, कामवासना, परिग्रह आदि पाप कर्म की जड़ें हैं, उन्हें जो लागातार सींचते रहते हैं वे बार-बार विविध गतियों और योनियों में जन्म लेते रहते हैं। . (१८१) अवि से हासमासज्ज, हंता णंदीति मण्णइ। अलं बालस्स संगेणं, वेरं वड्ढेइ अप्पणो। कठिन शब्दार्थ - हासं आसज्ज - हास्य को स्वीकार करके, हंता - मार कर, णंदीति - आनंद (क्रीड़ा), मण्णइ - मानता है, बालस्स - बाल (अज्ञानी) का, संगेण - .संग (संसर्ग) से, वेरं - वैरभाव को, वड्डइ - बढ़ाता है। . भावार्थ - वह विषयी जीव हास्य विनोद के लिये जीवों को मार कर आनंद (खुशीक्रीड़ा) मानता है। ऐसा करके वह अज्ञानी जीव उन प्राणियों के साथ व्यर्थ ही अपना वैर बढ़ाता है अतः ऐसे बाल अज्ञानी जीव का संग न करना चाहिये। - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्राणियों के वध आदि के निमित्त विनोद और उससे होने वाला वैर-वृद्धि का संकेत किया गया है। (१८२) तम्हाऽतिविज्जो परमंति णच्चा, आयंकदंसी ण करेड़ पावं। भावार्थ - इसलिये अतिशय विद्वान् पुरुष मोक्ष को सबसे श्रेष्ठ जानकर एवं आतंकदर्शी अर्थात् नरक आदि से भय करता हुआ पाप कर्म नहीं करता है। . विवेचन - ‘कर्म या हिंसा के कारण दुःख होता है' - जो यह जान लेता है वह आतंकदर्शी है। वह स्वयं पाप कर्म नहीं करता, न दूसरों से कराता है और पाप करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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