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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) @ @@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ @@@RRRRRRRRR
'अतिविज्जो' के स्थान पर अतिविजे/'अतिविज्ज' और तिविज्जो पाठ भी मिलता है जिसका अर्थ क्रमशः इस प्रकार है -
अतिविज्जे/अतिविज्जं - अतिविद्य - उत्तमज्ञानी - जिसकी विद्या जन्म, वृद्धि, सुखदुःख के दर्शन से अतीव तत्त्व विश्लेषण करने वाली है।
तिविज्जो - तीन विद्याओं का ज्ञाता - जो निम्न तीन बातों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है वह त्रैविध कहलाता है -
१. पूर्वजन्म - श्रृंखला और विकास की स्मृति। २. प्राणिजगत् को भलीभांति जानना। ३. अपने सुख दुःख के साथ उनके सुख-दुःख की तुलना करके पर्यालोचन करना।
सम्मत्तदंसी ण करेइ पावं का आशय यह है कि सम्यक्त्वी पुरुष मिथ्यादर्शनशल्य रूप पाप का बंध नहीं करता है। जब तक वह व्रत धारण नहीं करता है तब तक उसके सतरह ही . पाप खुले हैं।
(१८०) उम्मुंच पासं इह मच्चिएहिं, आरंभजीवी उभयाणुपस्सी। कामेसु गिद्धा णिचयं करंति। संसिच्चमाणा पुणरेति गम्भं।
कठिन शब्दार्थ - उम्मुंच - तोड़ दे, पासं - पाश को - भाव बंधन को, मच्चिएहिं - मनुष्यों के साथ, आरंभजीवी - आरम्भ से आजीविका करने वाला, उभयाणुपस्सी - उभयानुदर्शी - शारीरिक और मानसिक दुःखों का भागी, इहलोक और परलोक में अथवा शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के कामभोगों को ही देखने वाला, गिद्धा - आसक्त, णिचयं - संचय, संसिच्चमाणा - कर्मवृक्ष का सिंचन करते हुए।
भावार्थ - इस संसार में मनुष्यों के साथ जो पाश - रागादि बंधन हैं उन्हें तोड़ दे। जो पुरुष आरंभजीवी हैं वे इहलोक और परलोक में शरीर और, मन को ही देखते हैं। ऐसे कामभोगों में आसक्त जीव कर्मों का संचय करते हैं और कर्म रूपी वृक्ष की आसक्ति रूपी जड़ों का बार बार सिंचन करने से वे बार बार गर्भवास को प्राप्त होते हैं अर्थात् पुनः पुनः जन्म धारण करते हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पाप कर्मों का संचय करने वाले की वृत्ति, प्रवृत्ति और उसके फल का दिग्दर्शन कराया गया है।
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