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अध्ययन में आत्मा को बन्धन में डालने वाले कषाय अथवा आत्मा के साथ लगे कर्मों के बन्धन से मुक्त होने वाले भाव विमोक्ष का प्रतिपादन किया गया है। इसके आठ उद्देशक हैं। . उपधानश्रुत नामक नववां अध्ययन - इस अध्ययन में भगवान् महावीर की दीक्षा से लेकर निर्वाण तक की मुख्य मुख्य घटनाओं का वर्णन है। इसके चार उद्देशक हैं जिसमें भगवान् के तपोनिष्ठ संयम साधना का मार्मिक चित्रण किया गया है। उन्होंने अपने निकाचित कर्मों को क्षय करने के लिए अनार्यक्षेत्र में विचरण किया जहां उन्हें घोर उपसर्ग परीषहों को सहन करना पड़ा। ____ इस प्रकार संक्षिप्त में आचारांग प्रथम सूत्र का यह परिचय है। विज्ञ लोगों को विस्तृत अध्ययन करने के लिए सूत्र का गहराई से पारायण करना चाहिये। संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अर्न्तगत इसका प्रकाशन किया जा रहा है। इस श्रुतस्कन्ध का अन्वय युक्त शब्दार्थ और भावार्थ प्रकाशन छोटी साईज में हो रखा है। जिसके अनुवादक पं० श्री घेवरचन्दजी बांठिया "वीरपुत्र" जैन सिद्धान्त शास्त्री न्यायतीर्थ व्याकरणतीर्थ थे किन्तु उसमें विवेचन एवं व्याख्या सीमित होने से संघ की आगम प्रकाशन पद्धति के अनुरूप मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन युक्त इसका प्रकाशन किया जा रहा है। इसका अनुवाद सम्यग्दर्शन के सह सम्पादक श्री पारसमलजी सा. चण्डालिया ने किया। इसके लिए मूल पाठ के लिए संघ द्वारा प्रकाशित अंगपविट्ठ सुत्ताणि एवं मूर्तिपूजक संत श्री जम्बूविजयजी की प्रति का एवं विवेचन के लिए मधुकर जी की प्रति एवं टीका का आधार लिया गया । अनुवाद के पश्चात् इस आगम का अवलोकन करने हेतु गत चातुर्मास में दुर्ग विराजित पूज्य श्री लक्ष्मीमुनि जी म. सा. को भेजा। जिन्होंने श्रुतधर पंडित रत्न श्री प्रकाशचन्दजी म. सा. की आज्ञा से इसे सुनने की कृपा की और जहाँ आगमिक धारणा संबंधी संशोधन की आवश्यकता महसूस हुई योग्य सुधार करवाया। इस सूत्र को मूक सेवाभावी श्री किशोरजी सराफ, दुर्ग एवं श्री रोशनजी सोनी, दुर्ग ने अपने व्यस्त कार्यों में से समय निकाल कर वहाँ विराजित पू० श्री लक्ष्मीमुनि जी म. सा. को सुनाने की कृपा की। अतः संघ पूज्य श्री श्रुतधर पं. र. श्री प्रकाशचन्दजी म. सा., श्री लक्ष्मीमुनि जी म. सा. के साथ आपका भी आभार मानता है।
पूज्य श्री जी के अवलोकन के पश्चात् पुनः यहाँ मूल पाठ का मिलान एवं पुनः अवलोकन. किया गया है। मेरा स्वास्थ्य ठीक न होने पर भी मैंने इसका अवलोकन किया। बावजूद इसके छप्रस्थ होने के कारण हम भूलों के भण्डार रहे हुए हैं। अतः समाज के सुज्ञ विद्वान् समाज के
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