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________________ १२० आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 事部部部部部學部學部李魯部參事部曲串串串些參參參參參參參參參參參參參单单单单单单单单单单 रति को सहता हुआ, फरुसयं - परुषता - कठोरता का, जागरवेरोवरए - जागृत और वैरभाव से उपरत, पमुक्खसि - छूट जाता है। . भावार्थ - जिस पुरुष ने शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श को सम्यक् प्रकार से जान लिया है जो उनमें राग द्वेष नहीं करता है वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है। वह मति आदि ज्ञानों से लोक को जानता है वह मुनि कहलाता है। वह धर्मवेत्ता और सरल होता है। वह आवर्त स्रोत - संसार चक्र और विषयाभिलाषा के संग (संबंध) को जानता है। वह निग्रंथ शीत और उष्ण (सुख और दुःख) का त्यागी, अरति और रति को सहन करने वाला होता है। परीषह और उपसर्गों को पीडाकारी नहीं समझता है। असंयमरूप भाव निद्रा का त्याग कर जागृत रहता है। वैर से उपरत - निवृत्त हो गया है। इस प्रकार हे वीर! तू दुःखों से मुक्ति पा जायेगा। विवेचन - जिसने आभ्यन्तर और बाह्य दोनों प्रकार की ग्रंथियों को तोड़ दिया है. ऐसा निग्रंथ विषय सुखों की इच्छा नहीं करता है और परीषहों से घबराता भी नहीं है, अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों को समभाव से सहन करता है। ऐसे मुनि के लिये आत्मवान् आदि विशेषणों . का प्रयोग किया है, उनका विशेष अर्थ इस प्रकार है - १. आय (आत्मवान्) - ज्ञानादिमान् अथवा शब्दादि विषयों का त्याग कर आत्मा की रक्षा करने वाला। २. णाणवं (ज्ञानवान्) - जीवादि पदार्थों का यथावस्थित ज्ञान करने वाला। ३. वेयवं (वेवयान) - जीवादि के स्वरूप को जिनसे जाना सके, उन वेदों - आचारांग आदि आगमों का ज्ञाता। ४. धम्म (धर्मवान्) - श्रुत चारित्र रूप धर्म का ज्ञाता अथवा आत्मा के स्वभाव का ज्ञाता। ५. बंभवं (ब्रह्मवान्) - अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य से संपन्न । ब्रह्मचर्य के अठारह भेद इस प्रकार कहे गये हैं - विवा कामरइसुहा तिविहं तिविहेण नवविहा विरई।। ,ओरालिया उ वि तहा तं बंभ अवसभेयं॥ अर्थात् - देव संबंधी भोगों को मन, वचन और काया से सेवन न करना, दूसरों से न कराना तथा करते हुए को भला न जानना - इस प्रकार नौ भेद हो जाते हैं। औदारिक अर्थात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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