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दूसरा अध्ययन - छठा उद्देशक - धर्मोपदेश की विधि
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उपदेष्टा कैसा हो?
(१५५) जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थइ।
. कठिन शब्दार्थ - पुण्णस्स - पुण्यवान् (भाग्यवान्) को, कत्थइ - कहता है, तुच्छस्सतुच्छ (विपन्न, दरिद्र) को।
भावार्थ - आत्मदर्शी मुनि जैसे पुण्यवान् (भाग्यवान्, सम्पन्न) को धर्म उपदेश करता है वैसे ही तुच्छ (विपन्न, दरिद्र) को भी धर्म उपदेश करता है और जैसे तुच्छ को धर्मोपदेश करता है वैसे ही पुण्यवान् को,भी धर्मोपदेश करता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में उपदेष्टा (वक्ता) की निस्पृहता तथा समभावना का वर्णन किया गया है। ... जैसे मुनि, देवों के इन्द्र, चक्रवर्ती, माण्डलिक राजा और जाति, कुल, बल धनादि से सम्पन्न पुण्यवान् पुरुषों के लिए उपदेश देते हैं वैसे ही काष्ठ के ढोने वाले दरिद्र, कुरूप और धनादि से रहित तुच्छ पुरुषों के लिए भी उपदेश देते हैं क्योंकि मुनि तो सब जीवों का कल्याण एवं हित चाहते हैं। वे किसी से प्रत्युपकार की आशा नहीं रखते हैं इसलिए वे सब जीवों को समान दृष्टि से देखते हुए उनके कल्याण के लिए उपदेश देते हैं।
'पुण्णस्स' शब्द का 'पूर्णस्य' अर्थ भी किया जाता है। . टीकाकार ने इनकी व्याख्या इस प्रकार की है - ज्ञानेश्वर्य-धनोपेतो जात्यन्वयबलान्वितः।
तेजस्वी मतिवान् ख्यातः पूर्णस्तुच्छो विपर्यात्॥ .. - जो ज्ञान, प्रभुता, धन, जाति और बल से सम्पन्न हो, तेजस्वी हो, बुद्धिमान हो, प्रख्यात हो, उसे 'पूर्ण' कहा गया है। इसके विपरीत तुच्छ समझना चाहिये।
धर्मोपदेश की विधि
(१५६) अवि य हणे अणाइयमाणे। एत्थंपि जाण, सेयंति णत्थि। .
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