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________________ १०४ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) हिंसाजन्य काम-चिकित्सा (१४०) ते इच्छं पंडिए पवयमाणे, से हंता, छित्ता, भित्ता, लंपइत्ता, विलुपइत्ता, उद्दवइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे, जस्सवि य णं करेइ, अलं बालस्स संगणं, जे वा से कारइ बाले, ण एवं अणगारस्स जायइ त्ति बेमि। ॥ बीअं अज्झयणं पंचमोहेसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - तेइच्छं - कामचिकित्सा को, अलं संगेणं - संग नहीं करना चाहिये, अणगारस्स - अनगार (साधु) को, जायइ - कल्पता है। भावार्थ - काम की चिकित्सा का उपदेश देने वाला पण्डिताभिमानी अनेक प्राणियों का हनन, भेदन, लुम्पन, विलुम्पन और प्राण वध करता है। जो पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूंगा' यह मानता हुआ अज्ञानी प्राणीघातादि क्रियाएं करता है और जिसको वह ऐसा उपदेश देता है उसका भी अहित है। अतः ऐसे हिंसा प्रधान चिकित्सा करने वाले अज्ञानियों की संगति नहीं करनी चाहिये। जो ऐसी चिकित्सा करवाता है वह भी बाल - अज्ञानी है। इस प्रकार हिंसा के द्वारा चिकित्सा करने का उपदेश देना या चिकित्सा कराना साधु को नहीं कल्पता है। ऐसा मैं कहता हूं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में हिंसा-जन्य काम चिकित्सा का निषेध है। काम वासना की तृप्ति के लिए मनुष्य अनेक प्रकार की औषधियों का (वाजीकरण उपवृंहण आदि के लिए) सेवन करता है, मरफिया आदि के इंजेक्शन लेता है और शरीर के अवयंण जीर्ण व क्षीण सत्व होने पर औषधियों का प्रयोग कर काम सेवन की शक्ति को बढ़ाना चाहता है। उनके निमित्त वैद्य चिकित्सक अनेक प्रकार की जीव हिंसा करते हैं। चिकित्सक और चिकित्सा कराने वाला दोनों ही इस हिंसा के भागीदार होते हैं। यहां पर साधक के लिए इस प्रकार की चिकित्सा का सर्वथा निषेध किया गया है। जो प्राणीघातादि रूप पापकारी चिकित्सा न तो स्वयं करता है और न ऐसी चिकित्सा का उपदेश देता है। वही संसार के स्वरूप को जानने वाला सच्चा साधु है। || इति दूसरे अध्ययन का पांचवां उद्देशक समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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