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दूसरा अध्ययन - पांचवाँ उद्देशक - आहारादि की मात्रा
उपकरण पर मूर्छा-ममत्व को ‘परिग्रह' कहा है। अतः साधु शरीर और संयम के उपकरणों पर भी ममत्व भाव नहीं रखने वाला होवे।
११. कालाणुट्ठाई (कालानुष्ठायी) - योग्य समय पर योग्य पुरुषार्थ करने वाला। .
१२. अपडिण्णे (अप्रतिज्ञ) - राग और द्वेष के कारण जो प्रतिज्ञा की जाती है वह पाप . को उत्पन्न करने वाली है अतः साधु को किसी प्रकार का नियाणा (निदान) और ऐसी प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिये, जिससे स्व-पर की हानि हो।
(१२७) वत्थं-पडिग्गह-कंबलं-पायपुंछणं-उग्गहं च कडासणं, एएसु चेव जाणेज्जा।
कठिन शब्दार्थ - पडिग्गहं - प्रतिग्रह-पात्र, पायपुंछणं - पादप्रोच्छन-रजोहरण, उग्गहअवग्रह, कडासणं - कटासन-संस्तारक, जाणेज्जा - जाने।
भावार्थ - साधु वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंछन, अवग्रह (स्थान) और कटासन (संस्तारक) को जाने अर्थात् इनमें उपयोग रखे, सदोष का त्याग कर निर्दोष एवं शुद्ध होने पर ही ग्रहण करें।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि साधक वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण आसन आदि ग्रहण करते समय सम्यक् परीक्षण करे। यदि ये साधन सदोष प्रतीत हों, आधाकर्मादि दोषों से दूषित हों तो उनका परित्याग करके निर्दोष साधनों-उपकरणों की गवेषणा करे।
उग्गहं (अवग्रह) शब्द के दो अर्थ हैं - १. स्थान और २. आज्ञा लेकर ग्रहण करना। : आज्ञा लेकर ग्रहण करने के अर्थ में भगवती सूत्र शतक १६ उद्देशक २ में पांच प्रकार के अवग्रह कहे गये हैं-१. देवेन्द्र अवग्रह २. राज अवग्रह ३. गृहपति अवग्रह ४. शय्यातर अवग्रह और ५. साधर्मिक अवग्रह।
आहारादि की मात्रा
(१२८) लद्धे आहारे, अणगारो मायं जाणेज्जा से जहेयं भगवया पवेइयं।।
भावार्थ - आहार के प्राप्त होने पर साधु को उसकी मात्रा का ज्ञान होना चाहिए जैसा कि भगवान् ने फरमाया है।
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