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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 888888888888888888888888888888888888888
(१११) ... इणमेव णावबुज्झंति, जे जणा मोहपाउडा। - भावार्थ - जो लोग मोह से आवृत्त (ढंके हुए) हैं, वे इस तथ्य को नहीं जानते हैं कि पौद्गलिक साधनों से कभी सुख मिलता है और कभी नहीं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि भोगेच्छा जीवन को दुःखमय बनाती है। आत्मा स्वयं विषय तृष्णा रूपी बाण को अपने हृदय में डाल कर दुःख भोगता है। कर्मों का परिणाम विचित्र है कि जिन पौद्गलिक साधनों से मनुष्य को सुखों की प्राप्ति होती है उन्हीं साधनों से दूसरे को सुख नहीं मिलता है किन्तु मोह मूढ़ अज्ञानी जीव कर्मों की इस विचित्रता को नहीं समझ पाता है।
(११२) थीभि लोए पव्वहिए ते भो वयंति-“एयाई आययणाई"। "
कठिन शब्दार्थ - थीभि - स्त्रियों से, पव्वहिए - प्रव्यथित-पीड़ित, आययणाई - आयतन-भोग की सामग्री।
भावार्थ - यह लोक स्त्रियों से पीड़ित (पराजित) है। हे शिष्य! वे स्त्री मोहित जीव कहते हैं कि ये स्त्रियाँ आयतन - भोग की सामग्री है।
(११३) से दुक्खाए-मोहाए-माराए-णरगाए-णरगतिरिक्खाए।
भावार्थ - किन्तु उनका यह मंतव्य (कथन) दुःख के लिए, मोह के लिए, मृत्यु के लिए, नरक के लिए और नरक से निकल कर तिर्यंच योनि के लिए होता है।
(११४) सययं मूढे धम्मं णाभिजाणइ। भावार्थ - सतत मूढ जीव धर्म को नहीं जानता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि अज्ञानी जीव स्त्री आदि भोग साधनों को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझते हैं। स्त्री काम रूप है इसलिए कामी पुरुष स्त्रियों से. .
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