________________
दूसरा अध्ययन - तृतीय उद्देशक - धन अस्थिर और नाशवान् है
८१
8888888888 8
भावार्थ - सब को जीवन प्रिय है।
(६४) तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुंजिया णं, संसिंचियाणं, तिविहेण जा वि से तत्थ मत्ता भवइ-अप्पा वा बहुगा वा से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोयणाए। ___कठिन शब्दार्थ - परिगिज्झ - ग्रहण करके, दुपयं - द्विपद - दास दासी आदि नौकरों को, चउप्पयं - चतुष्पद - गाय, बैल, ऊंट आदि पशुओं को, अभिजुंजिया - काम में लगा कर, संसिंचियाणं - धन का संग्रह संचय करके, मत्ता - मात्रा, भोयणाए - भोग के लिए।
भावार्थ - अज्ञानी जीव उस असंयम जीवन को ग्रहण करके द्विपद (मनुष्य दास, दासी आदि नौकरों) को तथा चतुष्पद (गाय, ऊँट, बैल आदि) को काम में लगा कर तीन करण तीन योग से धन का संग्रह-संचय करता है जब उसके पास अल्प या बहुत मात्रा में धन संग्रह हो जाता है तो वह उस धन में आसक्त होकर भोग के लिए उसका संरक्षण करता है। . धन अस्थिर और नाशवान् है
(६५) तओ से एगया विविहं परिसिटुं संभूयं महोवगरणं भवइ। तंपि से एगया दायाया वा विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरइ, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सइ वा से, विणस्सइ वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ।
कठिन शब्दार्थ - परिसिढें - परिशिष्ट - भोगने से बचा हुआ, संभूयं - संभूत - पर्याप्त, महोवगरणं - महान् उपकरण वाला, दायाया - दायाद-भाई बंधु पुत्र आदि, विभयंतिबांट लेते हैं, अदत्तहारो - चोर, अवहरइ - चुरा लेते हैं, विलुपुंति - छिन लेने हैं, णस्सइनष्ट हो जाती है, विणस्सइ - विनष्ट-विविध प्रकार से नष्ट हो जाती है, अगारदाहेण - घर के दाह (जलने) से, डज्झइ - जल जाता है।
भावार्थ - तत्पश्चात् किसी समय वह विविध प्रकार से भोगोपभोग करने के बाद शेष बची पर्याप्त धन सम्पत्ति से महान् उपकरण वाला बन जाता है किन्तु उस सम्पत्ति को कभी तो दायाद - पैतृक सम्पत्ति के भागीदार भाई, पुत्र आदि बांट लेते हैं, चोर चुरा लेते हैं अथवा राजा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org