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उपक्रम का शास्त्रीय विवेचन
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जाणयसरीरभविय-सरीरवइरित्ता दव्वाणुपुव्वी दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - उवणिहिया य १ अणोवणिहिया य २।
शब्दार्थ - उवणिहिया - औपनिधिकी, अणोवणिहिया - अनौपनिधिकी। भावार्थ - ज्ञ शरीर - भव्य शरीर - व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है?
ज्ञ शरीर-भव्य शरीर - व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी औपनिधिकी एवं अनौपनिधिकी के रूप में दो प्रकार की कही गई है।
तत्थ णं जा सा उवणिहिया सा ठप्पा। शब्दार्थ - तत्थ - वहाँ, जा - जो, सा - वह, ठप्पा - स्थाप्य। भावार्थ - उनमें जो औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी है, वह स्थाप्य है।
तत्थ णं जा सा अणोवणिहिया सा दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - णेगमववहाराणं१ संगहस्स य २।
. भावार्थ - अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी दो प्रकार की निरूपित हुई है - १. नैगम - व्यवहारनय संबद्ध तथा २. संग्रहनय संबद्ध।
विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त औपनिधिकी एवं अनौपनिधिकी शब्दों का विश्लेषण इस प्रकार हैं - . ... 'औपनिधिकी' शब्द के मूल में उपनिधि शब्द है। यह उप उपसर्ग एवं निधि के मेल से बना है। उप का अर्थ समीप है। निधि का अर्थ किसी वस्तु को स्थापित या निहित करना अथवा रखना है। तदनुसार 'निधेः समीपं उपनिधि' यह व्युत्पत्ति है।
संस्कृत एवं प्राकृत में स्वार्थ में 'क' प्रत्यय होता है। अर्थात् 'क' प्रत्यय जोड़कर शब्द को और अधिक स्पष्ट बनाया जाता है, पर अर्थ ज्यों का त्यों रहता है। उपनिधि में 'क' प्रत्यय जोड़ने से उपनिधिक होता है। उपनिधिक से संबद्ध पदार्थ को औपनिधिक कहा जाता है। अर्थात् यह इसका विशेषण रूप है। औपनिधिक का स्त्रीलिङ्ग में ङीप (ई) प्रत्यय जोड़ने से औपनिधिकी होता है। जो औपनिधिकी न हो, उसे अनौपनिधिकी कहा जाता है। अर्थात् अन् प्रत्यय का प्रयोग निषेध में होता है, जो अनौपनिधिकी में है।
यहाँ इसका तात्पर्य यह होता है कि वर्णनीय पदार्थ को पहले स्थापित कर फिर उसके समीप ही पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से अन्यान्य पदार्थों का रखा जाना उपनिधि कहलाता है।
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