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________________ भावोपक्रम + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + ब्राह्मणी को अत्यन्त दुःख हुआ। वह लड़की से कहने लगी - "बेटी! तेरा पति दुराराध्य है। तू उसकी जितनी भी विनयभक्ति एवं सेवा कर सके, कर। उसी से तू सुखी रहेगी। प्रति से पराङमुख रहेगी तो तुझे कभी सुख नहीं मिलेगा। अतः तू सदैव उसके अनुकूल रहकर उसका मन प्रसन्न रख।" फिर अपने दामाद को बुलाकर ब्राह्मणी ने उसे नम्रतापूर्वक कहा - "वत्स! सुहागरात के समय मेरी पुत्री ने जो कुछ व्यवहार किया है, वह द्वेष या रोषवश रहकर नहीं, किन्तु अपने कुलाचार के अनुसार किया है। इसलिए बुरा मत मानो। उसे घर ले जाओ। वह तुम्हारी चरणसेविका एवं आज्ञानुवर्तिनी होकर रहेगी।" यों अपनी सास के नम्र एवं मधुर वचनों से उसका क्रोध शान्त हो गया। अपनी पत्नी पर प्रसन्न होकर वह उसे अपने घर ले आया। ब्राह्मणी ने अपनी पुत्रियों के माध्यम से अपने दामादों के अभिप्राय को अवगत कर लिया, यह बात उपर्युक्त दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाती है। ब्राह्मणी का दूसरे का अभिप्राय (मनोभाव) जानना ही शास्त्रीय भाषा में नो-आगमतः अप्रशस्त भावोपक्रम है। इस अभिप्रायज्ञान (भावोपक्रम) को अप्रशस्त इसीलिए कहा गया है कि यह सांसारिक है, इसके साथ त्याग, वैराग्य, प्रभुभक्ति या आत्मोत्थान का कोई वास्ता नहीं है। - वेश्या का अप्रशस्त भावोपक्रम - किसी नगर में विलासवती नामक एक वेश्या रहती थी। उसने महिलाओं की ६४ कलाओं (विज्ञानों) में निपुणता प्राप्त कर रखी थी। कामक्रीड़ा रसिक व्यक्तियों की मनोवृत्ति समझने के लिए उसने एक रतिभवन बनवाया। फिर उसने उस रतिभवन की दीवारें नानाविध कामक्रीड़ा करते हुए राजकुमार सेठ, सेनापति, मंत्रीपुत्र आदि के आकर्षक चित्रों से चित्रित करवा दीं। गणिका अपने यहां आने वालों को कामक्रीडारसिक मनोवृत्ति को भांप लेती एवं उसकी मनोवृत्ति के अनुसार उसके साथ कामक्रीड़ा करती। वेश्या के इस चातुर्यपूर्ण व्यवहार से आगन्तुक कामी व्यक्ति सन्तुष्ट होकर उसे पर्याप्त धन देते थे। इस प्रकार वेश्या ने नगर के प्रायः सभी सम्पन्न कामरसिकों के अभिप्रायों को जानकर उनकी रुचि के अनुसार कामलीला से मोहित करके उनसे प्रचुर धन लूटा। वेश्या द्वारा कामक्रीड़ा के विभिन्न भावाभिव्यंजक चित्रों के माध्यम से प्रत्येक आगन्तुक कामरसिकों की रुचियों और अभिप्रायों को जानना, नो-आगमतः अप्रशस्त भावोपक्रम है। वेश्या के भावोपक्रम (परकीय-अभिप्रायज्ञान) को अप्रशस्त कहे जाने का कारण स्पष्ट है। कामी लोगों के अभिप्राय जानकर तदनुसार उनकी वासनापूर्ति करके धन लूटना ही वेश्या का मुख्य लक्ष्य था। इस लक्ष्य की अप्रशस्तता स्पष्ट है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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