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________________ ३ अनुयोगद्वार सूत्र और वे उपयोगपूर्वक वैसा करते हैं। इसलिए उनकी अपेक्षा से वह भावावश्यक की परिधि में आता है। किन्तु यह वीतराग प्ररूपित आगम सम्मत नहीं है। अतएव नो आगमतः की श्रेणी में समाविष्ट है। (२७) लोकोत्तरिक भावावश्यक से किं तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं? लोगुत्तरियं भावावस्सयं - जे (जए)णं इमे समणे वा, समणी वा, सावओ वा, साविया वा, तच्चित्ते, तम्मणे, तल्लेसे, तदज्झवसिए तंत्तिव्वज्झवसाणे, तदट्ठोवउत्ते , तदप्पियकरणे, तब्भावणाभाविए, अण्णत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभओ-कालं आवस्सयं करे(न्ति)इ। सेत्तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं। सेत्तं णोआगमओ भावावस्सयं। सेत्तं भावावस्सयं। ___ शब्दार्थ - सावओ - श्रावक, साविया - श्राविका, तच्चित्ते - एकाग्रचित्त, तम्मणे - तन्मय, तल्लेसे - तदनुरूप शुभ लेश्या युक्त, अज्झवसिए - अध्यवसाय, तिव्व - तीव्र, तदट्ठोवउत्ते - तदर्थोपपन्न, तदप्पियकरणे - तदर्पितकरण-उसमें अर्पित इन्द्रिय युक्त, तब्भावणाभाविए - तदनुरूप भावना से अनुभावित, अण्णत्थ - अन्य अर्थ-विषय या प्रयोजन में, कत्थइ - कहीं भी, अकरेमाणे - नहीं लगाता हुआ, उभओं - दोनों। __ भावार्थ - लोकोत्तरिक भावावश्यक कैसा है? जो साधु-साध्वी, श्रावक या श्राविका एकाग्रचित्त, तन्मय, तदनुरूप शुभ लेश्या एवं अध्यवसाय युक्त, तीव्र भाव युक्त, तदनुरूप अर्थोपगत होकर उनमें उपयोग पूर्वक शरीर एवं इन्द्रियों को उसमें अर्पित किए हुए, तन्मूलक भावों में अपने आप को समर्पित कर अन्यत्र कहीं भी मन को न जाने देते हुए, पूरी तरह उसी में मन को लगाते हुए दोनों समय प्रतिक्रमणादि आवश्यक करते हैं, वह नो आगमतः लोकोत्तरिक भावावश्यक है। विवेचन - इस सूत्र में वर्णित नो आगमतः लोकोत्तरिक भावावश्यक का यह अभिप्राय है कि उपयोगपूर्वक किए जाने से उसका ज्ञानात्मक रूप भाव आवश्यक में समाविष्ट है किन्तु तद्गत बाह्य क्रियाएँ आगम रूप नहीं होने से नो आगमतः है। 8 जिणवयणधम्माणुरागरत्तमणे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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