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अनुगम विवेचन - सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगम
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५. प्रतिपूर्णघोष - उच्चारणीय पाठ का मंद स्वर द्वारा, जो कठिनाई से सुनाई दे वैसा उच्चारण न करना, पूरे स्वर से स्पष्टतया उच्चारण करना।
६. कण्ठोष्ठविप्रमुक्त - उच्चारणीय पाठ या पाठांश को गले और होठों में अटका कर अस्पष्ट नहीं बोलना। .
इसी सूत्र में निर्दोष विधि से उच्चारण करने का विशेष रूप से संकेत किया गया है। उच्चारण विधि के बत्तीस (३२) दोष माने गए हैं, जिन्हें उच्चारण करते समग अवश्य टालना चाहिए, वे निम्नांकित हैं -
१. अलीक - अलीक का अर्थ असत्य है। अविद्यमान या असद्भूत पदार्थों का सद्भाव बताना अलीक दोष है। जैसे सृष्टि का कोई रचयिता है। आत्मा नहीं है, इत्यादि। .. १. उपघात - जीवों के घात या हिंसा का विधान करना, जैसे - “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" - वेदविधि से यज्ञ में होने वाली 'हिंसा' हिंसा नहीं है।
३. निरर्थक - जिन अक्षरों का अनुक्रम पूर्वक उच्चारण तो प्रतीत हो किन्तु अर्थ कुछ भी न निकले। जैसे अ, आ, इ आदि स्वरों का उच्चारण तथा डित्थ, डवित्थ आदि स्वरों का प्रयोग।
४. अपार्थक - यथार्थ अभिप्राय को व्यक्त न करने वाले शब्दों का उस अर्थ में प्रयोग करना। ... ५. छल दोष - ऐसे पद का प्रयोग करना जिसका अभीप्सित अर्थ न हो, जैसे - “नव कंबलोऽयं माणवकः" - यहाँ नव शब्द का अर्थ नवीन है किन्तु उसका अर्थ नौ भी हो सकता है। . . ..
इसलिए यदि कोई नूतन अर्थ करे तो छल द्वारा उसे खंडित करने का अवसर रहता है। ६. गृहिल दोष - पापपूर्ण व्यापार का पोषण करना। ७. निस्सार वचन - साररहित या अयुक्तियुक्त वचन बोलना।
८. अधिक - जहाँ अक्षर, पद आदि वांछित से अधिक हों, वैसा प्रयोग करना। . ६. ऊनदोष - जहाँ अक्षर पदादि हीन हों अथवा हेतु एवं दृष्टान्त की न्यूनता हो।
१०. पुनरुक्त दोष - शब्द और अर्थ की दृष्टि से पुनरुक्त दो प्रकार का है। जिस शब्द का एक बार उच्चारण किया जाय, पुनः उसी का उच्चारण करना पुनरुक्त शब्द दोष है, उसी प्रकार अर्थ को पुनरुक्त करना।
. ११. व्याहत - जहाँ पूर्व वचन का उत्तर वचन से खंडन हो। जैसे - कर्म है किन्तु उसका कोई कर्ता नहीं है।
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