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________________ श्रमण जीवन की विभिन्न उपमाएं ४६१ १. उरग - 'उरसा गच्छतीति उरगः' - छाती के बल रेंगकर चलने के कारण सांप को उरग कहा जाता है। यह योगरूढ शब्द है। वैसे चलने वाले और भी प्राणी हैं किन्तु उरग शब्द साँप के लिए प्रयुक्त है। इसलिए यौगिक होते हुए भी यह रूढ है। जैसे सर्प अपने लिए स्वयं बिल नहीं बनाता, वह अन्यों द्वारा बनाए गए बिल में रहता है। उसी प्रकार श्रमण अपने लिए आवास का निर्माण नहीं करता। २. गिरि - जैसे पर्वत, आँधी और तूफान में अविचल रहता है, उसी प्रकार साधु परीषहों एवं उपसर्गों को सहने में आत्मबल के सहारे (पर्वत की तरह) अविचल रहता है। ३. जलन (ज्वलन) - जिस प्रकार अग्नि अपनी ज्वाला से उद्दीप्त रहती है, उसी प्रकार साधु अपने तपोबल से देदीप्यमान रहता है। ... ४. सागर - जैसे समुद्र कभी भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता उसी प्रकार साधु अपनी आचार मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता। अथवा समुद्र जैसे रत्नों का आकर है, वैसे ही साधु ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों का निधान है। ५. नभमंडल - जैसे गगनतल सर्वत्र निरवलम्ब है, किसी भी अवलंबन पर नहीं टिका है, उसी प्रकार साधु भी अन्य के आधार, अवलंबन या आश्रय पर नहीं होता। ६. तरुगण - जैसे 'वृक्ष समूह' का सिंचन करने वाले पर राग और छेदन करने वाले पर द्वेष नहीं होता, उसी प्रकार साधु निंदा, प्रशंसा, मानापमान में एक समान रहता है। - ७. भ्रमर - जैसे भौंरा अनेक फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण कर अपनी उदर पूर्ति करता है, उसी प्रकार साधु भी अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा आहार ग्रहण कर अपना निर्वाह करता है। ____८. मृग - जैसे मृग हिंसक जन्तुओं, आखेटकों आदि से सदैव भयभीत रहता है, उसी प्रकार साधु संसारभय से सदा भयान्वित या उद्विग्न रहता है। ६. धरणी - जैसे पृथ्वी सब कुछ सहन करती है, उसी प्रकार साधु भी अनुकूल - प्रतिकूल सभी स्थितियों को समभाव से सहता है। १०. जलरुह - जैसे कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है, जल में संवर्द्धित होता है किन्तु उनसे सर्वथा निर्लेप रहता है। उसी प्रकार साधु भी काम-भोगात्मक, मालिन्ययुक्त जगत् में रहता हुआ भी उससे सर्वथा अलिप्त रहता है।। ११. रवि - सूर्य अपने प्रकाश से समान रूप में सभी क्षेत्रों को आलोकित प्रकाशित करता है, उसी प्रकार साधु अपने ज्ञानरूपी प्रकाश को धर्म देशना द्वारा सर्वत्र फैलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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