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________________ अनुयोगद्वार सूत्र उसका आशय यह है कि यह आत्मा की प्रशंसनीय, मोक्षोन्मुख आय या उपलब्धि है जो "सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः" से सिद्ध है। जो प्रशस्त न हो, उसे अप्रशस्त कहा जाता है। अर्थात् श्लाघास्पद न हो, तद्विपरीत हो, उसे अप्रशस्त कहा जाता है। क्रोध, मान, माया, लोभ को अप्रशस्त आय के रूप में इसलिए अभिहित किया गया है कि इनसे आत्मा अश्लाघनीय, निन्दनीय या निम्न अवस्था को प्राप्त करती है। ये कषाय हैं। से किं तं झवणा? झवणा चउव्विहा पण्णत्ता। तंजहा - णामज्झवणा १ ठवणज्झवणा. २ दव्वज्झवणा ३ भावज्झवणा ४। णामठवणाओ पुव्वं भणियाओ। शब्दार्थ - झवणा - क्षपणा। भावार्थ - क्षपणा कितने प्रकार की कही गई है? यह नामक्षपणा, स्थापनाक्षपणा, द्रव्यक्षपणा और भावक्षपणा के रूप में चार प्रकार की परिज्ञापित हुई है। नाम और स्थापना का विवेचन पूर्वकृत वर्णन के अनुसार ग्राह्य है। द्रव्यक्षपणा से किं तं दव्वज्झवणा? दव्वज्झवणा दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - आगमओ य १णोआगमओ य २। भावार्थ - द्रव्यक्षपणा कितने प्रकार की परिज्ञापित हुई है? यह आगमतः और नोआगमतः के रूप में दो प्रकार की परिज्ञापित हुई है। विवेचन - कर्मों के क्षय, निर्जरण या नाश को क्षपणा कहते हैं। अर्थात् जिससे पूर्वबद्ध कर्म खिरते हैं, झड़ते हैं, क्षय प्राप्त करते हैं, वह विधि 'क्षपणा' कहलाती है। से किं तं आगमओ दव्यज्झवणा? आगमओ दव्वज्झवणा - जस्स णं 'झवणे' त्ति पयं सिक्खियं, ठियं, जियं, मियं, परिजियं जाव सेत्तं आगमओ दव्वज्झवणा। भावार्थ - आगमतः द्रव्यक्षपणा का क्या स्वरूप है? तत्त्वार्थ सूत्र, १, १. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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