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________________ ४६८ अनुयोगद्वार सूत्र भाव समवतार से किं तं भावसमोयारे? भावसमोयारे दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - आयसमोयारे य १ तदुभयसमोयारे य २। कोहे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं माणे समोयरइ आयभावे य। एवं माणे माया लोभे रागे मोहणिज्जे। अट्टकम्मपयडीओ आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति, तदुभयसमोयारेणं छविहे भावे समोयरंति आयभावे य। एवं छविहे भावे। जीवे जीवत्थिकाए आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं सव्वदव्वेसु समोयरइ आयभावे य। एत्थ संगहणीगाहा कोहे माणे माया, लोभे रागे य मोहणिज्जे य। पगडी भावे जीवे, जीवत्थिकाय दव्वा य॥१॥ सेत्तं भावसमोयारे। सेत्तं समोयारे। सेत्तं उवक्कमे॥ उवक्कम इति पढमंदारं॥ भावार्थ - भाव समवतार कैसा है - कितने प्रकार का है? भाव समवतार दो प्रकार का बतलाया गया है - १. आत्म-समवतार एवं २. तदुभय समवतार। .. आत्म-समवतार की अपेक्षा से क्रोध अपने स्वरूप में समवसृत होता है तथा निज स्वरूप युक्त क्रोध तदुभय समवतार की दृष्टि से मान में भी रहता है। ____ इसी तरह मान, माया, लोभ, राग, मोहनीय, अष्टकर्म प्रकृतियाँ आत्म-समवतार की दृष्टि से आत्मभाव में तथा निजस्वरूप युक्त ये सभी तदुभय समवतार की दृष्टि से छह भावों में समवतरित होते हैं। इसी प्रकार छह प्रकार के भावों के संदर्भ में ज्ञातव्य है। जीव, जीवास्तिकाय आत्म-समवतार की अपेक्षा से अपने स्वरूप में समवसृत होते हैं तथा तदुभय समवतार की अपेक्षा से निज स्वरूप युक्त ये सभी सर्वद्रव्यों में समवतरित होते हैं। संग्रहणी गाथा का अर्थ इस प्रकार हैं - 'क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, मोहनीय कर्म, प्रकृति, भाव, जीव, जीवास्तिकाय तथा सभी द्रव्य आत्म-समवतार की दृष्टि से अपने-अपने स्वरूप में तथा निज स्वरूप युक्त ये तदुभय समवतार की दृष्टि से पर रूप में भी रहते हैं।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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