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अनुयोगद्वार सूत्र
भावार्थ - ज्ञशरीर भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार का क्या स्वरूप है ? 'ज्ञशरीर - भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार तीन प्रकार का परिज्ञापित हुआ है। १. आत्मसमवतार २. परसमवतार और ३. तदुभयसमवतार ।
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सभी द्रव्य आत्मसमवतार की अपेक्षा से आत्मभाव में समवतरित होते हैं स्व स्वरूप में ही अवस्थित रहते हैं। परसमवतार की अपेक्षा से कुंड में बेर की तरह परभाव में स्थित रहते हैं। और तदुभयसमवतार की अपेक्षा से जैसे घर में स्तंभ एवं घड़े में ग्रीवा (गर्दन) की तरह परभाव एवं आत्मभाव - दोनों में रहते हैं ।
विवेचन - इस सूत्र में समस्त द्रव्यों को आत्मसमवतार, परसमवतार और तदुभयसमवतार के रूप में वर्णित किया है। उसका तात्पर्य यह है कि सभी द्रव्य अपने-अपने आत्मभाव में, स्वभाव में या स्वरूप में रहते हैं । निश्चय दृष्टि से कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य में अन्तर्भूतावस्था प्राप्त नहीं करता, उसमें समाविष्ट नहीं होता । किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से जब विचार किया जाता है तब दो भिन्न-भिन्न द्रव्य एक क्षेत्रावगाह में या साहचर्य में रहते हैं तब परसमवतार की स्थिति बनती है।
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यहाँ कुंड में बेर का उदाहरण दिया गया है। जैसे कुंड अपने स्वरूप में स्थित है, बेर भी अपने स्वरूप में अवस्थित है। वह कुंड रूप में अन्तर्भावगत नहीं होता । उसका अपना पृथक् अस्तित्व है। किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से बेर कुंड में गिरा ( रहा) हुआ है, तत्संसृष्ट, तदाधारित है। अतः इसे परसमवतार के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। परसमवतार का स्वतंत्र उदाहरण संभव नहीं है।
तदुभयसमवतार में दोनों के एक साथ समवतरण की जो बात कही गई है उसका आशय एक दूसरे का अंग और अंगी भाव या आधार और आधेय संबंध है। भवन के स्तंभ का यहाँ उदाहरण दिया गया है। स्तंभों पर भवन खड़ा है। सूक्ष्मता में जाएं तो स्तंभ अपने स्वरूप में तो अवस्थित है ही, किन्तु साथ ही साथ वह भवन रूप में भी अवस्थित है। यदि स्तंभ हट जाए तो भवन को खतरा उत्पन्न हो जाएगा। कुंड और बेर में यह स्थिति नहीं है। यदि बेर को कुंड से अलग कर दिया जाय तो कुंड को कोई खतरा नहीं होगा। इसी तरह घट और ग्रीवा के संदर्भ में जानना चाहिए। इन दोनों में ऐसा समन्वय है, जो मिटता नहीं तथा पृथक्-पृथक् भी हैं।
अहवा जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसमोयारे दुविहे पण्णत्ते । तंजहा -
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