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________________ ४६० अनुयोगद्वार सूत्र । भावार्थ - स्वसमय-परसमयवक्तव्यता का क्या स्वरूप है? जिसमें स्वसमय - स्वसिद्धांत और परसमय - परसिद्धांत (दोनों का) आख्यान (कथन) यावत् उपदर्शन किया जाता है, वह स्वसमय-परसमयवक्तव्यता है। विवेचन - एक ही विवेचन या तन्मूलक शाब्दिक विश्लेषण प्रयोक्ता के लिए स्वसमय - अपना सिद्धांत होता है तथा वही कथन इतर के लिए परसमय होता है। ___ उस इतर द्वारा इसका प्रयोग जब किया जाता है तब उस इतर के लिए स्व समय तथा पूर्वोक्त या अन्यों के लिए परसमय हो जाता है। इसका आशय यह है, ऐसी शब्दावली दोनों ही रूप में व्यवहृत और प्रयुक्त होती है। अर्थात् जो इसका प्रयोग करता है, उसके लिए स्वसमय रूप तथा इतर के लिए परसमय रूप होती है। ऐसा स्व-पर-समय वक्तव्यतामूलक कथन उभयमुखता लिए होता है। क्योंकि ऐसा होने से ही स्व-पर-समय का समन्वय माना जा सकता है। अन्यथा स्वसमय और परसमय कैसे स्वीकार हो सकते हैं? सूत्रकृतांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कंध, प्रथम अध्ययन एवं प्रथम उद्देशक में जैनेतर मतवादियों का वर्णन हुआ है, जिनका टीकाकार शीलांकाचार्य ने टीका में पंचभूतात्मवाद, आत्माद्वैतवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद, क्षणिक पंचस्कंधवाद के रूप में परिचय कराया है। इनके अंत में उसी उद्देशक में निम्नांकित गाथा का उल्लेख है - अगारमावसंतावि अरण्णा वावि पव्वया। इमं दरिसणमावण्णा, सम्वदुक्खा विमुच्चई॥१६॥ वे अन्य - जैनेतर दर्शनों में विश्वास रखने वाले कहते हैं कि जो अगार - घर में रहते हैं, गृहस्थ हैं, जो वन में रहते हैं, वानप्रस्थ या तापस हैं, जो प्रव्रजित हैं - प्रव्रज्या या दीक्षा लेकर मुनि के रूप में परिणत हैं, उनमें से जो भी हमारे सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं, वे सब प्रकार के दुःखों से छूट जाते हैं। ___इस गाथा का उपर्युक्त मतवादियों में से हर कोई प्रयोग कर सकता है। वह अपने सिद्धान्तों को सब दुःखों से छुटकारा दिलाने वाला कह सकता है। उसके लिए ऐसा कहना स्वसमय है किन्तु इनसे भिन्न सिद्धांतों में विश्वास करने वाले के लिए यह परसमय है। यह तथ्य सभी मतवादियों पर लागू होता है। जो-जो इसे सिद्धांत रूप में स्वीकार करते हैं, उन-उन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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