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________________ ४४८ अनुयोगद्वार सूत्र A + + + + + शलाका पल्य के साथ-साथ प्रतिशलाका पल्य और महाशलाका पल्य का भी शास्त्रों में उल्लेख हुआ है। प्रतिसाक्षीभूत सरसों के दाने से भरे जाने के कारण वह प्रतिशलाका कहा जाता है। प्रत्येक बार शलाका पल्य के रिक्त होने पर एक-एक सरसों का दाना प्रतिशलाका पल्य में डाला जाता है। प्रतिशलाका पल्य में प्रक्षिप्त सरसों के दानों की संख्या से यह विदित होता है कि इतनी बार शलाका पल्य भरा जा चुका है। महासाक्षीभूत सरसों के दानों से भरे जाने के कारण उसकी महाशलाका पल्य संज्ञा है। प्रतिशलाका पल्य के एक-एक बार भरे जाने और उसके रिक्त हो जाने पर एक-एक सरसों का दाना महाशलाका पल्य में डाला जाता है, इससे यह परिज्ञात होता है कि प्रतिशलाका पल्य इतनी बार भरा गया। __सर्षप कणों के माप के लिए एवं उससे उत्कृष्ट संख्याता की राशि का ज्ञान करने के लिए यहाँ पर टीका में एवं कर्मग्रन्थ भाग ४ में चार पल्यों के वर्णन से समझाया गया है। वे चार पल्य इस प्रकार हैं - १. अनवस्थित (एक सरीखा नहीं रह कर क्रमशः आगे-आगे विस्तृत परिमाण वाला होने से) २. शलाका (साक्षी भूत सर्षप कण) ३. प्रतिशलाका तथा ४. महाशलाका। ये पल्य (कुएँ) एक-एक लाख योजन के लम्बे चौड़े 'जम्बूद्वीप प्रमाण' सहस्त्र-सहस्त्र योजन के ऊंडे (गहरे) वेदिका पर्यन्त तक (साढ़े आठ योजन) प्रमाण ऊँचे। तीन लाख १६ हजार दो सौ सतावीस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठावीस धनुष साढे तेरह अंगुल झाझेरी परिधि वाले जानें। (३१६२२७ योजन, ३ कोस, १२८ धनुष, १३॥ झाझेरी परिधि) इन चारों में से सर्वप्रथम - प्रथम पल्य को शिखायुक्त ( ८|| योजन ऊँचाई में) सर्षपों (सरसों के दानों) से भरे। फिर उन सर्षपों के भरे हुए पल्य को असत्कल्पना से कोई देवादि उठाकर जम्बूद्वीप से प्रारम्भ (शुरू) करके एक सर्षप का दाना एक द्वीप, एक समुद्र में डाले। इस प्रकार डालते-डालते जिस द्वीप या समुद्र में वह पल्य खाली हो उस द्वीप या समुद्र जितना (अर्थात् जम्बूद्वीप से उस द्वीप या समुद्र की जितनी लम्बाई है - उतना लम्बा-चौड़ा) फिर (दूसरी बार) अनवस्थित पल्य कल्पित( बना) कर उसे वापिस अन्य सर्षपकणों से भरे। बाद में दूसरे शलाका' पल्य में प्रथम शलाका' डाले. (यह 'शलाका' अन्य सर्षपराशि में से लेकर डालना। अनवस्थित पल्य में भरे हुए में से नहीं डालना) फिर अनवस्थित को उठावे - पूर्वोक्त रीति से डाले। जहाँ खाली होवे वहाँ उतना बड़ा अनवस्थित पल्य बना के भरे और दूसरी शलाका ‘शलाका पल्य' में डाले एवं शलाका पल्य भरने पर अनवस्थित पल्य को भरकर रख दें और शलाका पल्य को उठाकर आगे के द्वीप समुद्रों में डाले। खाली होने पर एक प्रतिशलाका' प्रतिशलाका पल्य में डाले. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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