SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रदेश दृष्टान्त के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश, जीवास्तिकाय के प्रदेश और स्कन्ध के प्रदेश | ऐसा कहने वाले संग्रहनयवादी को व्यवहार नयवादी ने कहा प्रदेश होते हैं, यह सिद्ध नहीं होता । कैसे ? - - व्यवहारनयवादी ने कहा जैसे पांच सहभागी पुरुषों का कोई द्रव्य सामान्य होता है, जैसे - हिरण्य, स्वर्ण, धन-धान्य आदि । तब तुम्हारा कहना उचित नहीं है कि पांचों के प्रदेश हैं। इसलिए ऐसा मत कहो कि पांचों के प्रदेश हैं। यों कहो कि पांच प्रकार के प्रदेश हैं, यथा धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश, जीवास्तिकाय के प्रदेश, स्कन्ध के प्रदेश । ऐसा कहने वाले व्यवहारनयवादी को ऋजुसूत्र नयवादी ने कहा प्रकार के प्रदेश हैं, वह भी घटित नहीं होता । जो तुम कहते हो कि पांच क्यों? Jain Education International - - तुम कहते हो - पांचों के जो तुम पांच प्रकार के प्रदेश कहते हो, वहाँ एक-एक प्रदेश पांच-पांच प्रकार का है। इस प्रकार पच्चीस प्रकार के प्रदेश होते हैं। इसलिए ऐसा मत कहो कि पांच प्रकार के प्रदेश हैं। ऐसा कहो कि यह भजनीय है ( नियमा सम्मत नहीं ) यथा स्यात् धर्मास्तिकाय के प्रदेश, स्यात् अधर्मास्तिकाय के प्रदेश; स्यात आकाशास्तिकाय के प्रदेश, स्यात् जीवास्तिकाय के प्रदेश, स्यात् स्कन्ध के प्रदेश | ४२६ - For Personal & Private Use Only इस प्रकार कहने वाले ऋजुसूत्रनयवादी से संप्रति शब्दनयवादी ने कहा तुम कहते हो कि प्रदेश भजनीय है, यह कथन युक्ति युक्त नहीं है। क्योंकि प्रदेश भजनीय हैं, ऐसा कहना युक्ति युक्त नहीं है। ( - क्योंकि यदि प्रदेश भजनीय हों तो धर्मास्तिकाय का प्रदेश धर्मास्तिकाय का भी, अधर्मास्तिकाय का भी, आकाशास्तिकाय का भी, जीवास्तिकाय का भी और स्कंध का भी हो सकता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का प्रदेश धर्मास्तिकाय यावत् स्कंध का प्रदेश भी हो सकता है । जीवास्तिकाय का प्रदेश भी धर्मास्तिकाय का यावत् स्कंध का भी प्रदेश हो सकता है। स्कंध का प्रदेश भी धर्मास्तिकाय का यावत् स्कंध का भी प्रदेश हो सकता है । www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy