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नय प्रमाण
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विशुद्धतर नैगम नय के अनुसार वह कहता है - प्रस्थक को उत्कीर्णित कर रहा हूँ। उस पर लेखांकन करते हुए देख कर कोई कहे - क्या लेखांकन कर रहे हो?
_ विशुद्धतर नैगमनयानुसार वह कहता है - मैं प्रस्थक का लेखांकन कर रहा हूँ। विशुद्धतर नैगम के अनुसार वह नामांकित हुआ तब उसने प्रस्थक का रूप लिया।
व्यवहारनय के संदर्भ में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। संग्रहनय के अनुसार संचित, निर्मित धान्यपूरित प्रस्थक ही प्रस्थक कहलाता है। ___ऋजुसूत्रनय के अनुसार मापने का प्रस्थक संज्ञक पात्र भी प्रस्थक है और मेय धान्य आदि भी प्रस्थक हैं।
(शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत) इन तीनों शब्दनयों के अनुसार प्रस्थक के अर्थाधिकार का ज्ञाता अथवा प्रस्थककर्ता का उपयोग जिससे प्रस्थक निष्पन्न होता है, जिसमें प्रस्थक का आरोप होता है, पुनश्च वह प्रस्थक कहलाता है।
यह प्रस्थक दृष्टांत का स्वरूप है।
विवेचन - नयप्रमाण के अन्तर्गत नैगमनय से संबद्ध प्रमाण की चर्चा की गई है। - 'सामान्यविशेषग्राही नैगमः'* जो सामान्य एवं विशेष - दोनों को ग्रहण करता है, वह नैगमनय है। प्रस्थक के उदाहरण द्वारा इसे समझाया गया है। ___मागध मापों में प्रस्थक विशेष माप रहा है, जो किलोग्राम मूलक वर्तमान मापों से पूर्व सारे भारत में प्रचलित था। सेर (प्रस्थक) के आधार पर ही छोटे बड़े माप किए जाते थे। धान्य के माप-तौल हेतु प्रस्थक का प्रयोग होता था। एक सेर धान्य जिस पात्र में समा सके उसे प्रस्थ या प्रस्थक कहा जाता था। प्रस्थक-काष्ठ आदि से निर्मित होते थे।
इस उदाहरण में, जिसे प्रस्थक तोला जा सके, ऐसे पात्र के निर्माण का वर्णन है। प्रस्थक की सामान्य और विशेष दो अवस्थाएं हैं। प्रस्थक के निर्माण में लगने वाली वस्तु और प्रस्थक बनने तक निर्माण की सारी प्रक्रिया उसका सामान्य रूप है। प्रस्थक बन कर तैयार हो जाता है, प्रयोग में लेने योग्य हो जाता है, वह उसका विशेष रूप है। नैगमनय सामान्य-विशेष दोनों अवस्थाओं को स्वीकार करता है। तदनुसार किसी व्यक्ति के मन में प्रस्थक निर्माण का विचार आता है और तदनुकूल उपक्रमों को संपादित कर उसे बना लेता है। वह सब नैगम में समाविष्ट
* स्वाध्याय सूत्र, नवम अधिकार, सूत्र ५७ पृ० २४०
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