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चारित्रगुण प्रमाण
जाता है। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् जो अधिकतम छह मास का हो सकता है, नवदीक्षित साधु में प्रतिक्रमणपूर्वक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह - इन पाँच महाव्रतों का आरोपण किया जाता है अर्थात् नवदीक्षित साधु स्पष्ट रूप में, विशद रूप में - इन्हें स्वीकार करता है, समग्र जीवन पर्यन्त इनके पालन हेतु प्रतिज्ञाबद्ध होता है, जिसे लोक भाषा में 'बड़ी दीक्षा' कहा जाता है।
भरत एवं ऐरवत क्षेत्र के मध्य के बाईस (२२) तीर्थंकरों के - दूसरे से तेईसवें (२३वें) तक के तीर्थंकरों के तीर्थकाल में इत्वरिक चारित्र नहीं होता, यावत्कथिक ही होता है, क्योंकि उनमें दूसरी बार महाव्रतारोपण नहीं किया जाता। वे चातुर्याम धर्म के रूप में संयम का पालन करते हैं। वहाँ ब्रह्मचर्य का अपरिग्रह के रूप में स्वीकार है।
२. छेदोपस्थापनीय चारित्र - छेदोपस्थापनीय में छेद व उपस्थापनीय दोनों का मेल है। “उपस्थापयितुं योग्यं उपस्थापनीयम्” । व्याकरण के अनुसार यह 'चाहिए' वाचक 'अनीय' प्रत्यय के योग से बना हुआ शब्द है। इसका तात्पर्य व्रतों की साधक में पुनः स्थापना है।
सांतिचार व निरतिचार के रूप में इसके दो भेद हैं। साधुत्व या संयम के मूल गुणों में किसी प्रकार का विघात या छेद (भंग) होने पर जब उसे पुनः दीक्षा जी जाती है, वह सातिचार छेदोपस्थापनीय है। निरतिचार में दोष का कोई स्थान नहीं है। इत्वरिक सामायिक के अनंतर जब कुछ काल बाद उसमें महाव्रतारोपण किया जाता है, उसे दीक्षा दी जाती है, वह निरतिचार छेदोपस्थापनीय है।
३. परिहारविशुद्धि चारित्र यह साधुओं के एक विशेष प्रकार के सामूहिक तप के आधार पर होता है। परिहार शब्द त्याग- तितिक्षामय विशिष्ट तप का सूचक है, जिस द्वारा चारित्र में विशेष विशुद्धि प्राप्त की जाती है। इसके दो भेद माने गए हैं १. निर्विश्यमानक और २. निर्विष्टकायिक |
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तपोनिरत साधुओं में जो तपोविधि के अनुसार तपश्चरण में संलग्न होते हैं, उनका वह तन्मूलक चारित्र निर्विश्यमानक परिहार विशुद्धि चारित्र है ।
जो तपः साधक परिहार विशुद्धि तपःकर्म के अनुसार आराधना कर चुके हों तथा जो बाद में करने वाले हों वे निर्विष्टकायिक कहलाते हैं।
इस तप की आराधना विधि संक्षेप में इस प्रकार है -
इस सामूहिक तप में नौ ( ६ ) साधु मिलकर तपस्या करते हैं। वह अठारह माह तक चलती है। ६-६ महीनों के उनके तीन भाग होते हैं। प्रथम छह मास में चार साधु तप की
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