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अनुयोगद्वार सूत्र
विवेचन - वैधर्म्य शब्द विधर्म से बना है। 'विगतो धर्मोयस्मात् सः विधर्मः, विधर्मस्य भावः वैधर्म्यम्' - जिसमें धर्म या गुण सादृश्य प्राप्त नहीं होता, उसे विधर्म कहा जाता है। विधर्म का ही भाववाचक वैधर्म्य है। जैसे साधर्म्य के आधार पर अनुमान किया जाता है, उसी प्रकार वैधर्म्य के आधार पर भी अनुमान करने की अपनी विधा है। साधर्म्य द्वारा स्वीकरण होता है, वैधर्म्य द्वारा अपाकरण होता है। उस अपाकरण के माध्यम से तत्प्रतिकूल का स्वीकरण होता है।
यहाँ उसके तीन भेदों की चर्चा की गई है।
किंचित्वैधर्म्य वह है, जिसमें सामान्यतः समानता हो, कुछ अन्तर हो। इसमें चितकबरी और काली गाय के बछड़े लगभग सदृश होते हैं, किन्तु मातृभेद से उनमें भिन्नता है। ..
प्रायःवैधर्म्य वह है, जिसमें अधिकांशतः विधर्मता या असदृशता हो। यहाँ जो वायस और . पायस के उदाहरण दिए गए हैं, वे शब्दगत वैधर्म्य के सूचक हैं, जो ध्वनि में किंचित् भिन्न लगते हैं किन्तु अर्थ की दृष्टि से वे बहुत भिन्न हैं क्योंकि प्रथम कौवे का तथा द्वितीय खीर का वाचक है। इनमें सर्वथा वैधर्म्य इसलिए नहीं कहा गया क्योंकि प्रथम अक्षरों के अलावा ('वा'.
और 'पा') इनमें साम्य है। ___ सर्वथा वैधर्म्य वह है, जिसमें किसी भी प्रकार की सदृशता या सजातीयता न हो, वह सर्ववैधोपनीत होता है।
इसमें जो उदाहरण दिए गए हैं, वे विशेष रूप से विचारणीय है। जैसे - किसी कुत्ते ने अत्यंत कलुषित, निर्दय कार्य किया, किसी छोटे से कोमलकाय शिशु को बुरी तरह क्षत-विक्षत कर डाला। उसे देखकर यह कहा जाना कि कुत्ते ने कुत्ते जैसा ही कार्य किया, अर्थात् यह कार्य इतना निन्द्य, निर्दयता पूर्ण है, जिसे किसी मानव द्वारा किए जाने का तो प्रसंग ही नहीं आता। (यह उस कार्य की सर्वथा अकरणीयता, निम्नता, परिहेयता को व्यक्त करता है) इस प्रकार सर्वथा वैपरीत्य के कारण, अन्यों से भिन्न होने के कारण यह सर्वथा वैधर्म्य के अन्तर्गत आता है।
आगम प्रमाण
से किंतं आगमे? आगमे दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - लोइए य १ लोउत्तरिए य १। भावार्थ - आगम प्रमाण के कितने प्रकार है? आगम प्रमाण दो प्रकार के कहे गए हैं - १. लौकिक तथा २. लोकोत्तरिक ।
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