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________________ ३८४ अनुयोगद्वार सूत्र होते हैं। क्षेत्रापेक्षया अंगुल के प्रथम वर्गमूल को तृतीय वर्गमूल से गुणन करने पर जो संख्या प्रत्युत्पन्न होती है, वह तत्प्रमाण है। इनके मुक्त शरीर सामान्य औदारिक शरीरों की भाँति कथनीय हैं। विवेचन - इस सूत्र में औदारिक शरीरों का संख्यात और असंख्यात - दो प्रकार से उल्लेख हुआ है, जिसका अभिप्राय यह है कि एक अपेक्षा से संख्यात कहे जा सकते हैं और दूसरी अपेक्षा से असंख्यात भी कहे जा सकते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि मनुष्य गर्भज और सम्मूर्छिम के रूप में दो प्रकार के होते हैं। इनमें गर्भज मनुष्य तो सदैव होते हैं किन्तु सम्मूर्छिम मनुष्य कादाचित्क हैं। उनकी आयु भी उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त की होती है। उत्पत्ति का विरहकाल उत्कृष्टतः चौबीस मुहूर्त प्रमाण होता है। अतएव जब सम्मूर्छिम मनुष्य नहीं होते, केवल गर्भज मनुष्य होते हैं, तब वे संख्यात होते हैं। जब सम्मूर्छिम मनुष्य होते हैं तो सम्मूर्छिम और गर्भज - दोनों मिलकर समुच्चय रूप में असंख्यात हो जाते हैं। सूत्र में जघन्य पद में गर्भज मनुष्यों के औदारिक शरीरों का प्रमाण संख्यात बतलाया गया है, पुनश्च उसका संख्यात रूप में विशेष विश्लेषण किया गया है। इसका कारण यह है - संख्यात के भी संख्यात भेद होते हैं। इसलिए मात्र संख्यात कहने से नियत संख्या का ज्ञान नहीं होता। अतएव नियत संख्या का बोध कराने हेतु संख्यात कोड़ाकोड़ी कहा गया है। उसी को विशेष स्पष्ट करने के लिए कहा गया है कि वह संख्या चार यमलपद से नीचे तथा तीन यमलपद से ऊपर होती है। वे संख्यात कोटा कोटि उनतीस अंक परिमित होते हैं। आठ-आठ पदों की एक यमलपद रूप संख्या होती है। उनतीस अंकों पर विचार करने पर चौबीस अंकों के तीन यमल होते हैं तथा ३२ अंकों के चार यमल होते हैं। अतः २६ का अंक तीन यमल के ऊपर तथा चार यमल से नीचे है।। इसी तथ्य को विशेष रूप से स्पष्ट करते हुए एक अन्य विधि का उल्लेख किया गया है। पंचम वर्ग से छठे वर्ग को गुणित करने पर जो राशि प्राप्त होती है, वह जघन्यतः पद का संख्या प्रमाण है। पंचम वर्ग और छठे वर्ग को गुणित करने का स्पष्टीकरण इस प्रकार है - १x११ गुणनफल होता है। अतएव एक (१) को वर्ग रूप में नहीं गिना जाता। वर्ग का प्रारंभ २ से होता है। २४२-४ (प्रथम वर्ग), ४४४-१६ (द्वितीय वर्ग), १६४१६=२५६ (तृतीय वर्ग), २५६x२५६=६५५३६ (चतुर्थ वर्ग), ६५५३६x६५५३६=४२६४६६७२९६ (पंचम वर्ग), इस पंचम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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