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________________ अनुयोगद्वार सूत्र वीतराग, सर्वज्ञ तीर्थंकर होते हैं। सर्वज्ञत्व की दृष्टि से वे सर्वथा आप्त होते हैं। क्योंकि उनके वचन वर्तमान, भूत और भविष्य - तीनों कालों से अबाधित होते हैं, सर्वांशतः प्रामाणिक, विश्वस्त एवं अविप्रतिपन्न-असंदिग्ध होते हैं। अतएव उन आगमों को अंगों के रूप में स्वीकृत किया गया, जो अर्थ रूप में तीर्थंकरों द्वारा भाषित तथा शब्द रूप में उनके प्रमुख शिष्य गणधरों द्वारा संकलित या संग्रथित (रचित) हैं। अंगेषु प्रविष्टानि - अंग प्रविष्टानि - यह व्युत्पत्ति यहाँ फलित होती है। .. जो आगम अंगगत तत्त्व के अनुरूप स्थविरों द्वारा प्रणीत हैं, उन्हें अनंगप्रविष्ट या अंगबाह्य कहा जाता है। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने भी विशेषावश्यक भाष्य में यही लिखा है। गणहर थेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा। ध्रुव-चल-विसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं॥५५०॥ "अंगश्रुत का सीधा सम्बन्ध गणधरों से है, जबकि अनंग (अंगबाह्य) श्रुत का सीधा सम्बन्ध स्थविरों से है। अथवा गणधरों के पूछने पर तीर्थंकर ने त्रिपदी के रूप में या अर्थरूप में जो बताया, वह अंगश्रुत है तथा बिना पूछे अपने आप (उत्तराध्ययन सूत्र की तरह) जो बताया, वह अनंगश्रुत है। अथवा जो श्रुत सदा एकरूप (ध्रुव) रहता है, वह अंगश्रुत है, तथा जो श्रुत परिवर्तित, अनियत तथा न्यूनाधिक होता रहता है, वह अनंगश्रुत हैं।" ___ नंदी सूत्र की टीका में आचार्य मलयगिरि ने इसी तथ्य का प्रतिपादन किया है। जैन श्रमणसंघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर तथा गणावच्छेदक इन सात पदों के होने का उल्लेख हुआ है। जिनका शास्त्राध्ययन विशाल हो, अपने विपुल ज्ञान द्वारा जीवन सत्त्व के परिज्ञाता हों तथा शास्त्र ज्ञान द्वारा जिनके जीवन में आध्यात्मिक स्थिरता और दृढ़ता हो, वे स्थविर कहलाते हैं। इस प्रकार जीवन के धनी श्रमणों की अपनी गरिमा है। वे दृढ़धर्मा होते हैं और संघ के श्रमणों को धर्म में, साधना में और संयम में स्थिर बनाए रखने के लिए सदैव जागरूक तथा प्रयत्नशील रहते हैं। * (क) स्थानांग सूत्र - ४, ३, ३२३ वृत्ति (ख) बृहत्कल्प सूत्र, उद्देशक - ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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