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________________ व्यावहारिक परमाणु तथा ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों के आठ बालाग्रों से एक लीख, आठ लीखों से एक जूं, आठ जूंओं से एक-एक यवमध्य तथा आठ यवमध्यों से एक उत्सेधांगुल होता है । विवेचन अनंतानंत व्यावहारिक परमाणुओं के समुदय से निष्पन्न होने वाले कार्यों का वर्णन करते हुए इस सूत्र में सूक्ष्म रूप को लेकर उत्सेध अंगुल तक के क्रमशः वृद्धिक्रम को बतलाया है। यहाँ जिस शैली में वर्णन किया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि पूर्ववर्ती आठ स्वल्प या सूक्ष्म के बराबर उत्तरवर्ती एक होता है। जैसे- देवकुरु - उत्तरकुरु के मनुष्यों के आठ बालाग्रों के समान हरिवर्ष - रम्यक् वर्ष के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । समाधान - शंका - यहाँ प्रस्तुत सूत्र में - 'महाविदेह के आठ बालाग्रों के बराबर भरत ऐरावत का एक बाला बताया है - जबकि भगवती सूत्र (शतक ६ उद्देशक ७) में तथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के वक्षस्कार दूसरे में 'भरत ऐरावत के ८ बालाग्र' नहीं बताए है ? इसका क्या कारण समझना चाहिये ? यद्यपि अनुयोगद्वार में अङ्गुल प्रकरण में ही 'बालाग्रों' को आठ गुणा करते हुए महाविदेह के बालाग्रों के बाद भरत - ऐरावत के बालाग्र बताकर लिक्षा का वर्णन किया है। इसी का अनुगमन - 'संग्रहणी वृहद्वृत्ति, प्रवचन सारोद्वार वृत्ति, जीव समास वृत्ति में किया है, तथापि भगवती ( ६-७ ), जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ( २) में महाविदेह के बाद भरत ऐरावत के बालाग्रों का उल्लेख नहीं है । अंग सूत्रों को प्रमुखता देने की दृष्टि से भगवती सूत्र के पाठ को प्राथमिकता दी जा सकती है। जीवकाण्ड (गोम्मटसार - दिगम्बर साहित्य) में भी भगवती सूत्र के अनुरूप ही कथन मिलता है। 'कहां पर स्खलना हुई ?' प्रामाणिक साधनों के अभाव में जानना कठिन है। उपर्युक्त मूल पाठ में आये हुए उर्ध्वरेणु, त्रसरेणु और रथरेणु का अर्थ इस प्रकार है उर्ध्वरेणु - स्वभाव से उड़ने वाली धूल के कण जो सूर्य के प्रकाश में दिखते हैं। त्रसरेणु - कुंथुए आदि अत्यन्त सूक्ष्म ( बारीक) त्रस जीवों के चलने से जो रेखा बनती है, उसकी मोटाई । - - Jain Education International - २८७ - रथरेणु - रथ के चलने से उड़ने वाली रज के कण । एएणं अंगुलाण पमाणेणं छ अंगुलाई - पाओ, बारस अंगुलाई - विहत्थी, चउवीसं अंगुलाई - रयणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी, छण्णवइ अंगुलाई से एगे दंडे वा, धणून वा, जुगेड़ वा, णालियाइ वा अक्खेइ वा, मुसलेइ वा । एणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साइं - गाउयं, चत्तारि गाउयाइं - जोयणं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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