SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गीत के आठ गुण २०५ २. कंठविशुद्ध - गले से। ३. शिरोविशुद्ध - मस्तक से - स्वर विशुद्ध या विशद रूप में निःसृत हो। ४. मृदुक - कोमल स्वर में उच्चारित हो। ५. पदबद्ध - विशिष्ट - पद - रचना - संयुक्त हो। ६. समताल प्रत्युत्क्षेप - गीत के संगान में ताल, वाद्य, ध्वनि एवं नृत्यकार का पाद संचालन परस्पर समता सामञ्जस्य लिए हुए हो। ७. सप्त स्वर सीमर - सातों स्वरों का संप्रयोग हल्की-हल्की वर्षा की फुहारों की तरह स्फीतता से युक्त हो॥७॥ प्रकारान्तर से गीत के गुण इस प्रकार भी हैं - १. अक्षरसम - उसमें हस्व, दीर्घ, प्लुत, निरनुनासिक, सानुनासिक आदि अक्षर यथावत् उच्चारित हों। २. पदसम - स्वर के अनुरूप पदों का उपयोग हो। ३. तालसम - ताल वादन के अनुसार स्वर संगान। ४. लयसम - लय के अनुसार गान। ५. ग्रहसम - वीणा आदि वाद्यों के तन्तुओं से व्यक्त धुन के अनुरूप ज्ञान। ६. निश्वसितोच्छ्वसितसम - गान करते समय श्वास लेने और छोड़ने का क्रम स्वर के अनुरूप हो। ७. संचारसम - वीणा आदि तन्तुवाद्यों के तारों से झंकृत ध्वनि के अनुरूप गान हो॥८॥ गेय पदों के आठ गुण इस प्रकार प्रज्ञप्त हुए हैं - १. निर्दोष - मात्रादि दोष रहित। २. सारयुक्त - विशिष्ट आशय युक्त। ३. हेतुयुक्त - अर्थोपपादक। ४. अलंकृत - अनुप्रास, उपमादि अलंकारों से युक्त। ५. अपनीय - उपसंहार युक्त। ६. सोपचार - यथाक्रम अविरुद्ध, शब्दार्थमय। ७. मित - परिमित पद, अक्षर युक्त ८. मधुर - श्रुतिप्रिय, माधुर्य युक्त हो॥६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy