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________________ १७६ अनुयोगद्वार सूत्र कर्मों के क्षय से होने वाले तीन नाम - अनावरण, निरावरण, क्षीणावरण बताये हैं। इससे यह फलित होता है कि ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म के आवरण से जो गुण आच्छादित थे वे गुण इन दोनों कर्मों के क्षय होने से सद्भूत नामवाले (केवलज्ञान, केवलदर्शन) प्रकट हुए। जैसे बादलों के आवरण से सूर्य विमान ढका हुआ था, वह बादलों के हट जाने से वास्तविक रूप से प्रकट होता है, वैसा ही इन दोनों कर्मों के क्षय से नवीन गुण उत्पन्न होने से आगमकारों ने - 'उत्पन्न ज्ञान, दर्शन धर' शब्द के रूप में बताया है। शेष छह कर्मों के क्षय से नवीन नाम वाला कोई गुण उत्पन्न नहीं होकर उन-उन कर्मों का पूर्ण अभाव होना ही गुणों के रूप में बताया गया है। क्योंकि जीव के मौलिक गुण तो ज्ञान एवं दर्शन ही बताते गये हैं। दो कर्मों के क्षय से सकारात्मक गुणों एवं शेष छह कर्मों के क्षय से निषेधात्मक गुणों की प्राप्ति होती है। ऐसा आगमकारों के द्वारा बताया गया है। यहाँ पर ३१ गुणों का वर्णन किया गया है इसी पाठ के वर्णन से. अपेक्षा से आठ कर्मों की मूल प्रकृतियों के क्षय से आठ गुणों को कहना भी अनुचित नहीं है। क्षायोपशमिक भाव से किं तं खओवसमिए? खओवसमिए दुविहे पण्णत्ते। तंजहा-खओवसमे य १ खओवसमणिप्फण्णे य २। से किं तं खओवसमे? खओवसमे - चउण्हं घाइकम्माणं खओवसमेणं, तंजहा-णाणावरणिजस्स १ दसणावरणिज्जस्स २ मोहणिजस्स ३ अंतरायस्स खओवसमेणं ४। सेत्तं खओवसमे। शब्दार्थ - घाइकम्माणं - घाति कर्मों को। भावार्थ - क्षायोपशमिक भाव कितने प्रकार का होता है? क्षायोपशमिक भाव दो प्रकार का बतलाया गया है - १. क्षयोपशम २. क्षयोपशम निष्पन्न । क्षयोपशम का क्या स्वरूप है? चार घाति कर्मों के क्षयोपशम से होने वाला भाव क्षयोपशम भाव है। ये चार घाति कर्म१. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३. मोहनीय एवं ४. अंतराय हैं। यह क्षयोपशम का स्वरूप है। पसमा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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