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अनुयोगद्वार सूत्र
औपशमिक शब्द उपशम से बना है। 'उपशम' का तात्पर्य शान्त होने से है अर्थात् जैसे तेलगत मैल आदि अवशिष्ट पदार्थ जब तलछट के रूप में नीचे बैठ जाते हैं तो ऊर्ध्ववर्ती पदार्थ में स्वच्छता आ जाती है, उसी प्रकार यहाँ कर्मों की उपस्थिति तो होती है, परन्तु वे उदय में नहीं आ पाते।
औपशमिक भाव दो प्रकार के होते हैं -
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१. सम्यक्त्व और २. चारित्र
दर्शन-मोहनीय कर्म के उपशम से सम्यक्त्व का तथा चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से चारित्र का आविर्भाव होता है अर्थात् औपशमिक भावों के उदय से दर्शन मोहनीय और च मोहनीय कर्मों के प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार के उदय नहीं हो पाते हैं। ये कुछ समय के लिए ढक जाते हैं - उपशांत हो जाते हैं।
यहाँ यह ध्यातव्य है, उपशम भाव में जीव ग्यारहवें गुणस्थान तक की स्थिति प्राप्त कर लेता है । अतः यह एक प्रकार से आत्म-विशुद्धि का भी द्योतक है।
३. क्षायिक- जो कर्मों के क्षय से निष्पन्न होते हैं, वे क्षायिक भाव कहे जाते हैं। वे ज्ञान, दर्शन, लाभ, दान, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व एवं चारित्र रूप हैं।
जैसे मैल के पूर्णतः निष्कासन से जल में नितान्त स्वच्छता उद्भासित होती है, वैसे ही कर्मावरणों के सर्वथा नाश से आत्मा के निर्मल भाव प्रवाहित होते हैं। ये नौ प्रकार के हैं। केवल ज्ञानावरण, केवल दर्शनावरण के क्षय से केवलज्ञान, केवल दर्शन तथा पंचविध अन्तराय के क्षय से दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इन पांच लब्धियों से एवं दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय से सम्यक्त्व तथा चारित्र मोहनीय कर्म के क्षय से चारित्र का आविर्भाव होता है।
४. क्षायोपशमिक - जो क्षय एवं उपशम से निष्पन्न होते हैं, वे भाव क्षायोपशमिक कहे जाते हैं। चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, दान आदि पांच लब्धियाँ, सर्वविरति एवं देशविरति - ये क्षायोपशमिक भाव हैं।
इस अवस्था में कर्म - पुद्गलों का कुछ अंश उदय में आता है तथा कुछ भाग उपशांत रहता है अर्थात् यहाँ क्षय और उपशम ये दोनों स्थितियाँ ही दृष्टिगत होती हैं । यह स्थिति ठीक वैसे ही है, जैसे पोस्त (अफीम) के डोडे को धोने से उसकी कुछ मादकता क्षीण हो जाती है एवं कुछ समायी रहती है।
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