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________________ भावानुपूर्वी का विवेचन एक (औदयिक) से लेकर एक-एक की उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए छह ( सान्निपातिक) तक एक श्रेणी स्थापित करना तथा तदगत संख्याओं का परस्पर गुणन कर प्राप्त भंगों में से प्रथम एवं अंतिम भंग को हटा देने पर अवशिष्ट शेष भंग अनानुपूर्वी रूप हैं । यह अनानुपूर्वी का वर्णन है । इस प्रकार भावानुपूर्वी का विवेचन परिसमाप्त होता है। यहाँ आनुपूर्वी पद सम्पन्न होता है । विवेचन - “भवतीति भावः " के अनुसार वस्तु का परिणाम या पर्याय भाव कहा जाता है। इसका संबंध जीव और अजीव दोनों से है। क्योंकि पर्याय परिवर्तन रूप भाव दोनों में प्राप्त होते हैं । यहाँ प्रयुक्त भाव शब्द अन्तःकरण की परिणति विशेष का द्योतक है अथवा उसके परिणाम विशेष हैं। दूसरे शब्दों में, पर्यायों की ये विभिन्न अवस्थाएं - जीव का कर्म संचय, संतरण, निर्धारण और परिणमन ही भाव कहलाती है। भावों का संक्षिप्त निरूपण इस प्रकार हैं १४३ १. औदयिक चार गतियाँ, चार कषाय, तीन वेद, छह लेश्याएं, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम एवं असिद्ध - ये औदयिक भाव हैं। कर्मों के विपाक से औदयिक भाव निष्पत्ति पाते हैं। विपाक का शाब्दिक अर्थ 'पकना' है। अर्थात् एक निश्चित समय के उपरान्त कर्मफल प्रकट होते हैं, उदित होते हैं, अपना प्रभाव दिखलाने लगते हैं। जल में मैल के मिश्रण से दृष्टिगोचर होने वाली स्थिति से इसे समझा जा सकता है। निम्नांकित इक्कीस औदयिक भाव हैं - नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव- इन चतुर्गति में से किसी एक का नाम कर्म के उदय से क्रोध, मान, माया, लोभ- चार कषायों में से किसी एक का, वेद-मोहनीय - स्त्री, पुरुष, नपुंसक में से किसी एक का तथा कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म व शुक्ल - इन छह लेश्याओं में से किसी एक का अवश्य ही आविर्भाव रहता है। इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से मिथ्यादर्शन का, ज्ञानावरणीय से अज्ञान का, अनन्तानुबंधी से असंयम का तथा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र से असिद्धत्व का भाव उदय में रहता है। - Jain Education International २. औपशमिक जो भाव सत्ता में विद्यमान रहते हैं, किन्तु कर्मों के अनुदित होने से उपशांत या अव्यक्त रहते हैं, वे औपशमिक भाव हैं । औपशमिक भाव सम्यक्त्व एवं चारित्र रूप दो प्रकार के हैं। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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