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समाचारी - आनुपूर्वी का निरूपण
परिपंथी प्रत्यवायों / बाधाओ को दूर करता हुआ आत्मोन्नयन के पथ पर उत्तरोत्तर गतिशील होता रहे। समाचारी के क्रमानुसार दस प्रकार हैं
१. इच्छाकार सत्कर्म के पूर्व सदिच्छा का उद्भव होता है जो सहज है। अतएव बिना किसी दवाब के आन्तरिक प्रेरणा से व्रतादि का आचरण करना इच्छाकार कहा जाता है।
२. मिथ्याकार जब तक साधना में पूर्णता नहीं आती, प्रमादवश अकृत्य का सेवन भी हो जाता है। वैसा होने पर यह चिन्तन करते हुए कि मैंने यह मिथ्या, असत् आचरण किया है, वैसा न हो, यों पश्चात्ताप करना मिथ्याकार है । यह आत्मसम्मार्जन का विशिष्ट हेतु है ।
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३. तथाकार - 'विणयमूलो धम्मो' - के अनुसार जैन धर्म विनयमूलक है। धार्मिक जीवन में गुरु का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। गुरु के वनों को तथा या तथ्य (तहत्ति ) कह कर आदर देना, तथाकार है । ४. आवश्यकी
आवश्यक कार्य हेतु स्थान से बाहर जाने का गुरु से निवेदन करना
आवश्यक है।
५. नैषेधिकी - कोई भी कार्य कर वापस आने पर स्थान में प्रवेश करने की सूचना देना नैधिकी है। इसका आशय जो कार्य करना था, अब वह अपेक्षित नहीं है, हो चुका है। यों इसमें उसका प्रतिषेध किया जाता है।
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६. आपृच्छना - कोई भी कार्य करने से पहले गुरुवर से पूछना, उनकी आज्ञा प्राप्त करना पृच्छना है।
७. प्रतिपृच्छना - कार्य को शुरू करते समय पुनः गुरुवर्य से पूछना अथवा किसी कार्य के लिए गुरु ने मना कर दिया हो तो कुछ देर पश्चात् कार्य की अनिवार्यता निवेदित करते हुए पूछना, प्रतिपृच्छना है।
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८. छन्दना - सांभोगिक - समान आचार विधा, परम्परा समन्वित साधुओं से अपने द्वारा लाया हुआ आहार आदि ग्रहण करने का निवेदन करना ।
६. निमंत्रण
'आहार आदि लाकर आपको दूंगा' - यों निवेदन कर अन्य साधुओं को
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तदर्थ आमंत्रित करना । १०. उपसंपदा
उसके अनुशासन में रहना ।
श्रुत आदि प्राप्त करने हेतु अन्य साधुओं की अधीनता स्वीकार करना,
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