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अनुयोगद्वार सूत्र
यह पूर्वानुपूर्वी का वर्णन है। पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है?
६. हुंडसंस्थान से लेकर यावत् १. समचतुरस्रसंस्थान पर्यन्त विपरीत क्रम से इन संस्थानों का विन्यास पश्चानुपूर्वी है। यह पश्चानुपूर्वी का विवेचन है।
अनानुपूर्वी का कैसा स्वरूप है?
प्रथम (समचतुरस्र संस्थान) से प्रारंभ कर हुंडसंस्थान पर्यन्त उत्तरोत्तर एक-एक की वृद्धि करते जाने से निष्पन्न श्रेणी में विद्यमान संख्या का परस्पर गुणन करने पर, गुणनफल के रूप में प्राप्त राशि में से आदि और अन्त - दो भंगों को कम करने से अवशिष्ट भंग अनानुपूर्वी रूप हैं।
यह अनानुपूर्वी का वर्णन है। इस प्रकार संस्थानानुपूर्वी का विवेचन समाप्त होता है।
विवेचन - संस्थानानुपूर्वी का संबंध संस्थान से है। 'सम्यक् स्थियते यस्मिन् तत्संस्थानम्'जिसमें भलीभाँति स्थित हुआ जाता है, उसे संस्थान कहा जाता है। तदनुसार संस्थान का अर्थ आकार या आकृति है। इस सूत्र में पंचेन्द्रिय जीव के छह संस्थानों का उल्लेख हुआ है। इसका तात्पर्य यह है कि उनके दैहिक आकार आंगिक भिन्नता के आधार पर छह प्रकार के होते हैं। इन छहों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है -
१. समचतुरस संस्थान - सम+चतुः+अम्र - इन तीन के मेल से समचतुरस्र शब्द बना है। 'सम' - समान का, 'चतुः' - चार का तथा अम्र' - दैहिक कोनों (किनारों) का वाचक है। ___“समाः चतस्रोऽस्रयो यस्मिन् यत्र वा तत् समचतुरस्रम्" - जिस देह के चारों कोण समान हों, उसे समचतुरस्र कहा जाता है। पलाथी मारकर बैठने पर जिस देह के चारों कोने समान हों, वह समचतुरस्र संस्थान है। अर्थात् इस संस्थान में आसन और कपाल का, दोनों जानुओं का, बाएँ स्कंध और दाहिने जानु का, दाहिने स्कंध और बाएँ जानु का अन्तर समान होता है। __ दूसरे प्रकार से इसकी व्याख्या यों भी की जाती है कि सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस देह के समग्र अवयव समुचित प्रमाणयुक्त हों, उसे समचतुरस्र संस्थान के रूप में अभिहित किया जाता है।
२. न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान - न्यग्रोध का अर्थ बरगद का पेड़ है। परिमंडल का तात्पर्य उसका विस्तार या फैलाव है। बरगद का वृक्ष ऊपरी भाग में विशेष फैला हुआ होता है
और नीचे के भाग में संकुचित होता है। उसी प्रकार जिस दैहिक आकार में नाभि के ऊपर का भाग विस्तार युक्त हो, नीचे का भाग हीन अवयव युक्त हो उसे न्यग्रोध परिमंडल संस्थान कहते हैं।
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