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अल्प- बहुत्व निरूपण
भावार्थ - हे भगवन्! इन नैगम-व्यवहारनयानुगत आनुपूर्वी द्रव्यों, अनानुपूर्वी द्रव्यों एवं अवक्तव्य द्रव्यों में कौन-कौन से द्रव्य किन-किन द्रव्यों से द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता तथा द्रव्यप्रदेशार्थता की दृष्टि से अल्प या बहुत या तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं?
हे आयुष्मन् गौतम! नैग व्यवहार सम्मत अवक्तव्य द्रव्य द्रव्यार्थता की दृष्टि से सबसे न्यून - कम हैं। अनानुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता की दृष्टि से (अवक्तव्य द्रव्यों से) विशेषाधिक हैं एवं आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा से (अनानुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा से) असंख्यातगुने हैं।
प्रदेशार्थता की दृष्टि से नैगम - व्यवहारनय सम्मत अनानुपूर्वी द्रव्य अप्रदेशी होने से सबसे कम हैं। प्रदेशार्थता की दृष्टि से अवक्तव्य द्रव्य (अनानुपूर्वी द्रव्यों से) विशेषाधिक हैं तथा आनुपूर्वी द्रव्य प्रदेशार्थता की दृष्टि से (अवक्तव्य द्रव्यों से ) असंख्यात गुने हैं ।
द्रव्यार्थ - प्रदेशार्थता की दृष्टि से नैगम व्यवहारनय सम्मत अवक्तव्य द्रव्य, द्रव्य रूप में सबसे अल्प हैं। द्रव्यार्थता और अप्रदेशार्थता की अपेक्षा से अनानुपूर्वी द्रव्य (अवक्तव्य द्रव्यों से) विशेषाधिक हैं। अवक्तव्य द्रव्य प्रदेशार्थता की अपेक्षा से विशेषाधिक हैं। आनुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा से असंख्यात गुने हैं। इसी प्रकार प्रदेशार्थता की अपेक्षा से भी असंख्यातगुने हैं।
यही अनुगम का स्वरूप है। यहाँ नैगम-व्यवहार नयानुरूप क्षेत्रानुपूर्वी का विवेचन परिसमाप्त होता है।.
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विवेचन - अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य के रूप में आगमों के दो प्रकार हैं। तीर्थंकर देव द्वारा त्रिपदी के रूप में प्ररूपित देशना का गणधर लोक कल्याण की दृष्टि से प्रश्नोत्तरों के रूप में वर्णन करते हैं। यह पद्धति जन-जन के लिए सिद्धान्तों को समझने की दृष्टि से उपयोगी है।
अंग बाह्य आगम भी सैद्धांतिक दृष्टि से अंगप्रविष्ट के अनुरूप ही हैं। उनमें भी यत्र-तत्र प्रश्नोत्तरों की शैली प्राप्त होती है । जहाँ-जहाँ वर्णित विषयों का अंगवाङ्मय से शाब्दिक दृष्ट्या अध्याहार या उदाहरण के रूप में सीधा संबंध है, वहाँ-वहाँ संभवत: प्रश्नोत्तरात्मक शैली का प्रयोग हुआ है, सर्वत्र नहीं। इसी कारण अंग आगमों का अनुसरण करते हुए अंग बाह्य में भी कतिपय स्थानों पर 'भंते' और 'गोयमा' संबोधनों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है ।
अनुयोगद्वार मूल आगमों में अन्तिम है। इसमें भी अनेक स्थानों पर भंते और गोयमा का इसी दृष्टि से उपयोग हुआ है।
रचनाकार विनयातिशयवश अपनी लघुता व्यक्त करने हेतु भी उस तरह की शैली को अपना सकते हैं, ऐसा संभावित है। इससे वर्णित विषय की महिमा और गंभीरता वृद्धिंगत हो जाती है।
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