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________________ १०४ अनुयोगद्वार सूत्र अणाणुपुव्वी-एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो सेत्तं अणाणुपुव्वी। सेत्तं उवणिहिया दव्वाणुपुव्वी*। सेत्तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वाणुपुव्वी। सेत्तं णोआगमओ दव्वाणुपुव्वी। सेत्तं दव्वाणुपुवी। भावार्थ - अनानुपूर्वी का कैसा स्वरूप है? एक से प्रारम्भ कर एक-एक की वृद्धि करने से निष्पन्न अनंत प्रदेशिक स्कन्ध पर्यन्त श्रेणी की - संख्या के अंकों को परस्पर गुणित करने से जो गुणनफल आता है, उसमें से आदि और अन्त के दो भंगों का निष्कासन करने पर अवशिष्ट भंग अनानुपूर्वी रूप होते हैं। ' यह अनानुपूर्वी का स्वरूप है। यह औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का विवेचन है । यह ज्ञ शरीर - भव्य शरीर - व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी का प्रतिपादन है। यह नोआगमतः द्रव्यानुपूर्वी है। यहाँ द्रव्यानुपूर्वी का विवेचन परिसमाप्त होता है। (१००) क्षेत्रानुपूर्वी के भेद से किं तं खेत्ताणुपुव्वी? खेत्ताणुपुव्वी दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - उवणिहिया य अणोवणिहिया य। भावार्थ - क्षेत्रानुपूर्वी कितने प्रकार की है? क्षेत्रानुपूर्वी दो प्रकार की प्रतिपादित हुई है - १. औपनिधिकी तथा २. अनौपनिधिकी। (१०१) तत्थ णं जा सा उवणिहिया सा ठप्पा। भावार्थ - इनमें जो औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी है, वह स्थाप्य है। * पच्वंतरे एसो पाढो णत्थि। ★ अन्य अनेक प्रतियों में यह पाठ नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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