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________________ Jain Education International पण्णत्ता । ते णं देवा सोलसण्हं अद्धमासाणं ( सोलसेहिं अद्धमासेहिं ) आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीससंति वा । तेसिणं देवाणं सोलस वाससहस्सेहिं आहार समुप्पज्जइ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सोलसेहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति ॥ १६ ॥ गाथा - षोडशक गाथा नामक सोलहवां अध्ययन, नरक विभक्ति, महावीर थुई - महावीर स्तुति, वीर्य, आहातहिए - यथातथ्य, कठिन शब्दार्थ - गाहासोलसगा वेयालिए - वैतालीय, णिरयविभत्ती कुसील परिभासिए - कुशील परिभाषा, वीरिए ग्रन्थ, जमइए यमक, सूरियावत्ते - सूर्यावर्त्त, दिशाओं का आदि (प्रारम्भक), वडिंसे - अवतंस, चमरबलीणं - चमरचञ्चा और बलिचञ्चा . राजधानी के मध्य में स्थित भवन, उवारियालेणे - अवतारिका लयन पीठिका | सूरियावरणे - सूर्यावरण, दिसाई भावार्थ - श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में सोलह अध्ययन हैं, उनमें गाथा नाम का सोलहवां अध्ययन है। उन सोलह अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं १. समय २. वैतालीय, ३. उपसर्ग परिज्ञा ४. स्त्री परिज्ञा ५. नरक विभक्ति ६. महावीर स्तुति, ७. कुशील परिभाषा ८. वीर्य ९. धर्म १०. समाधि ११. मार्ग १२. समवसरण १३. यथातथ्य १४. ग्रन्थ १५. यमक १६. गाथा । कषाय सोलह प्रकार के कहे गये हैं । यथा १. अनन्तानुबन्धी क्रोध, २. अनन्तानुबन्धी मान, ३. अनन्तानुबन्धी माया ४. अनन्तानुबन्धी लोभ ५. अप्रत्याख्यान क्रोध ६. अप्रत्याख्यान मान ७ अप्रत्याख्यान माया ८. अप्रत्याख्यान लोभ ९ प्रत्याख्यानावरण क्रोध १०. प्रत्याख्यानावरण मान ११. प्रत्याख्यानावरण माया १२. प्रत्याख्यानावरण लोभ १३. संज्वलन क्रोध, १४. संज्वलन मान, १५. संज्वलन माया १६. संज्वलन लोभ । मेरु पर्वत के सोलह नाम कहे गये हैं । यथा १. मन्दर २. मेरु ३. मनोरम ४. सुदर्शन ५. स्वयंप्रभ ६. गिरिराज ७. रत्नोच्चय, ८. प्रियदर्शन ( शिलोच्चय ) ९. लोकमध्य, १०. लोकनाभि ११. अत्थ (अस्त ) १२ सूर्यावर्त्त १३. सूर्यावरण, १४. उत्तर - भरत आदि सब क्षेत्रों से मेरु पर्वत उत्तर दिशा में पड़ता है । १५. दिशादि १६. अवतंस। पुरुषादानीय दिगादि - सब दिशाओं का प्रारम्भक तथा निश्चय कराने वाला पुरुषों में सम्माननीय पार्श्वनाथ भगवान् के उत्कृष्ट श्रमणसंपदा सोलह हजार थी । आत्मप्रवाद पूर्व की सोलह वस्तु - अध्ययन कहे गये हैं । चमरचञ्चा और बलिञ्च राजधानी के मध्य में स्थित भवन की पीठिका सोलह हजार योजन लम्बी चौड़ी कही गई है। जम्बूद्वीप से लवण समुद्र में पंचानवें हजार योजन जाने पर तथा धातकी खण्ड से ९५ वें हजार योजन लवण समुद्र में इधर आने पर बीच में नगर के कोट की तरह एक - - समवाय १६ - - ७७ For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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