________________
७०
समवायांग सूत्र memememenemamaeesesamaARANAMAMATA स्थानों को गुणस्थान कहा है। जिसका अर्थ किया है - गुणों (आत्मशक्तियों) के स्थानों अर्थात् क्रमिक विकास की अवस्थाओं को 'गुणस्थान' कहते हैं। गुणस्थान जीव के ही होते हैं, अजीव के नहीं। इस अपेक्षा से जीवस्थान और गुणस्थान एकार्थक हो जाते हैं। कर्मग्रन्थ में गुणस्थान का स्वरूप बहुत विस्तृत दिया हुआ है। प्रायः उसी का अनुसरण करते हुए श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह के पांचवें भाग में भी गुणस्थानों का स्वरूप सरल हिन्दी भाषा में दिया गया है। __जिस प्रकार धर्म पक्ष में तीर्थकर भगवान् का स्थान सर्वोपरि है। उसी प्रकार संसार पक्ष में चक्रवर्ती का दर्जा सर्वोपरि है। उसकी अधीनता में ३२ हजार मुकुट बन्ध/राजा रहते हैं। वह १४ रत्न, नव निधि का स्वामी होता है। १६ हजार देवता उनकी सेवा में रहते हैं। ६४ हजार रानियों का अन्तःपुर होता है। जैसे - तीर्थङ्कर भगवान् की गति मोक्ष की निश्चित होती है वैसे चक्रवर्ती की गति निश्चित नहीं होती। यदि वे दीक्षा लें तो मोक्ष अथवा वैमानिक देवों में उत्पत्ति होती है और यदि चक्रवर्ती राजऋद्धि में ही आसक्त बना रहे तो/मर कर नरक गति में ही जाता है। इस अवसर्पिणी काल में दस चक्रवर्ती मोक्ष गये हैं। सुभूम और ब्रह्मदत्त ये दो चक्रवर्ती नरक में गये हैं।
पन्द्रहवां समवाय पण्णरस परमाहमिया पण्णता तंजहा -
अंबे अंबरिसे चेव, सामे सबले त्ति यावरे। रुविकर काले य, महाकाले त्ति यावरे ॥ असिपत्ते धण कुंभे, वालुए वेयरणी त्ति य।
खरस्सरे महाघोसे, एए पण्णरसाहिया॥ णमी णं अरहा पण्णरस धणूई उड्डूं उच्चत्तेणं होत्था । धुव्वराहू णं बहुल पक्खस्स पडिवए पण्णरसभागं पण्णरसभागेणं चंदस्स लेसं आवरित्ताणं चिढह तंजहापढमाए परमं भागं, बीयाए दुभागं, तइयाए तिभागं, चउत्थीए चउभागं, पंचमीए पंचभाग, छट्ठीए छभागं, सत्तमीए सत्तभागं, अट्ठमीए अट्ठभागं, णवमीए णवभागं,. दसमीए दसभागं, एक्कारसीए एक्कारसभागं, बारसीए बारसभागं, तेरसीए तेरसभागं, चउद्दसीए चउद्दसभागं, पण्णरसेसु पण्णरसभाग। तं चेव सुक्कपक्खस्स य उवदंसेमाणे
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org