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________________ समवाय १२ बारह पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति बारह पल्योपम की कही गई है। छठे लान्तक देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति बारह सागरोपम की कही गई है। लान्तक देवलोक के अन्तर्गत महेन्द्र, महेन्द्र ध्वज, कम्बु, कम्बुग्रीव, पुंक्ष, सुपुंक्ष, महापुंक्ष, पुण्ड्र, सुपुण्ड्र, महापुण्ड्र, नरेन्द्र, नरेन्द्रकान्त, नरेन्द्रावतंसक, इन तेरह विमानों में जो देव देवरूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम की कही गई है। वे देव बारह पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं । उन देवों को बारह हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बारह भव करके सिद्ध होंगे, यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ।। १२॥ बुद्ध होंगे विवेचन - एक समान समाचारी वाले साधुओं का साधुओं के साथ तथा साध्वियों का साध्वियों के साथ सम्मिलित आहारादि करने के व्यवहार को संभोग कहते हैं । इनमें से किसी भी सम्भोग के नियम का पालन न करने पर प्रायश्चित्त का भागी बनता है। तीन बार तक प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध हो सकता है किन्तु चौथी बार दोष लगने पर प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता . है । किन्तु विसंभोगी कर दिया जाता है । उपरोक्त बारह संभोगों में से शुद्ध और समान समाचारी वाली साध्वियों के साथ ये छह सम्भोग हो सकते हैं - १. श्रुत संभोग - अर्थात् विधिपूर्वक शास्त्र की वांचना लेना और देना । २. अंजलि प्रग्रह - परस्पर वन्दन नमस्कार करना एवं आलोचना आदि लेना देना । Jain Education International - ५९ COFFEEEEEE•I•I•I•F ३. अभ्युत्थान- साधु के आने पर खड़ा होना । ४. कृतिकर्म - विधिपूर्वक वन्दन करना । ५. समवसरण व्याख्यान आदि के समय साधु के स्थान पर आकर व्याख्यान सुनना । ६. कथा प्रबन्ध . एक जगह बैठकर शास्त्र चर्चा एवं धर्म चर्चा आदि करना । ये छह संभोग साधु साध्वियों के परस्पर हो सकते हैं। . कृतिकर्म के बारह आवर्तन बताये गये हैं किन्तु यहां (समवायाङ्ग की टीका में) जैसा चाहिये वैसा विषय को स्पष्ट नहीं किया जा सका है किन्तु 'दुओणयं जहाजायं' यह गाथा आवश्यक निर्युक्ति में (गाथा नं. १२०२) दी है जहाँ इस विषय को पूर्ण रूप से स्पष्ट किया गया है और कहा गया है कि - ' २५ आवश्यक से परिशुद्ध यदि वन्दना की जाय तो वन्दन कर्त्ता परिनिर्वाण को प्राप्त होता है या वैमानिक देव होता है।' गुरु महाराज की वन्दना For Personal & Private Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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