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________________ ४८ समवायांग सूत्र चित्त का पर्यायवाची शब्द मन है। चित्त और मन को वश में करना बड़ा कठिन है। किन्तु तपश्चर्या तथा धर्म चिंतन करते हुए कर्मों का आवरण हल्का पड़ता है। उस समय चित्त में होने वाले विशुद्ध आनन्द को चित्त समाधि कहते हैं। चित्त समाधि के कारणों को शास्त्रकार ने "चित्तसमाधि स्थान" कहा है। जिनका वर्णन ऊपर मूल में तथा भावार्थ में कर दिया गया है। . जहाँ के मनुष्य असि (शस्त्र-तलवार, भाला आदि) मषि (स्याही तथा स्याही से होने वाले सब कार्य जैसे व्यापार, धन्धा, कानून आदि) कृषि (खेती बाड़ी यावत् शारीरिक परिश्रम से होने वाले सब कार्य) से अपनी आजीविका करते हैं। उस क्षेत्र को कर्म भूमि का क्षेत्र कहते हैं। जहाँ उपरोक्त साधनों से आजीविका नहीं करते अपितु वृक्षों से जिनकी आजीविका चलती है उस स्थान को अकर्मभूमि तथा भोग भूमि कहते हैं। ५ देवकुरु, ५ उत्तरकुरु, ५ हरिवास, ५ रम्यक्वास, ५ हेमवत, ५ हेरण्यवत् ये तीस और एकोरुक आदि ५६ अन्तरद्वीप ये ८६ क्षेत्र युगलिक क्षेत्र हैं। यहाँ पर दस जाति के वृक्ष होते हैं। ये इन क्षेत्रों में अनेक जगह होते हैं। ये केवल गिनती की अपेक्षा १० नहीं किन्तु जाति की अपेक्षा १० प्रकार के हैं और अनेक हैं। इनसे युगलिकों की आजीविका होती है। जिस युगलिक को जिस वस्तु की आवश्यकता होती है। वह उस जाति के वृक्ष के पास पहुँच जाता है और अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर लेता है। ये वनस्पति जाति के वृक्ष हैं, कल्प वृक्ष नहीं, ये देवाधिष्ठित भी नहीं हैं। साधारण वृक्षों की तरह वृक्ष हैं इसलिये इन्हें वृक्ष ही कहना चाहिये। जैसा कि शास्त्रकार ने मूल में "रुक्खा " शब्द दिया है, जिसका अर्थ है - वृक्ष । जो जिस जाति का वृक्ष है उस वृक्ष से वही चीज प्राप्त होती है। इसलिये 'जो मांगे सो देते हैं, ऐसा कहना ठीक नहीं है। यदि कल्प वृक्ष हो तो दस जाति के वृक्षों की आवश्यकता नहीं, एक ही कल्प वृक्ष सब वस्तुओं की पूर्ति (पूर्णता) कर सकता है। परन्तु वैसा नहीं है। अतः इन्हें कल्पवृक्ष नहीं कहना चाहिये। वृक्ष ही कहना चाहिए। ज्ञान की वृद्धि करने वाले नक्षत्र दस हैं। यह बात यहाँ पर और ठाणाङ्ग सूत्र के दसवें ठाणे में भी बतलाई गयी है। इस का अभिप्राय यह है कि उपरोक्त दस नक्षत्रों के उदय होने पर और चन्द्रमा के साथ योग जोड़ने पर विद्यारंभ करना या विद्या अध्ययन सम्बन्धी कोई भी कार्य प्रारंभ करने से ज्ञान की वृद्धि होती है। उस कार्य में सफलता मिलती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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